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40 अथ श्री संघपट्टकः
टीका:-नीयाइ सुरलोएइत्यादौ देवकुलिक परिग्रहाधुपा• धिवशेना निश्राकृतादेरपि क्वचित्कदाचि दनायतनव्यपदेशादौपाधिकत्वेन तस्य पृथगपरिसंख्यानात् ॥ यद्वा ॥ तत्पूजार्हापामेव चैत्यानां संख्या निधानं ॥ श्रनायतनचत्यस्यत्वपूज्यत्वेन पृथगपाठा चदंतः पाढे तस्याप्येवं प्रतिपधेरन्मंदमेधसः ॥
अर्थ :- नित्यादिचैत्य देवलोकमां बे इत्यादि वचनने विषे देवपूजारातुं ग्रहण कर ए रूप जे उपाधि ते तो वशथी श्रमिश्रा कृतादि चैत्यनो परा क्यारेक को जगाए अनायतन पणाना कहेवाथी उपाधिक संबंधी करीने तेने जुडुं गएयुं नथी ए हेतु माटे श्रथवा तेमां पूजा करवा योग्य एवां जे चैत्य तेनीज संख्या कही बे ने अनायतन चैत्य तो पूज्य बे ए देतु माटे एनो पाठ जुदो न.
लो बे केमजे जो ते पूजनिक चैत्य जेलुं पूजनिक जे अनाय तन चैत्य तेनो पाठ नयो होत तो केटलाक मंद बुद्धिवाळाने ए सर्वचैत् पूजनिक मनात हेतु माटे जावार्थः पांच प्रकारनां चैत्य पूजनिक बे ने बहुं लिंगधारीए ग्रहण करेलुं श्रनायतन चैत्य ते पूजनिक बे.
टीका:- एक सूत्र निर्दिष्टानां सहवा प्रवृत्तिः सहवानिवृतिरिति वैयाकरण न्यायात् ॥ तस्मात् ज्ञायते विशेष प्रतिपत्त - येतेयस्तस्यपार्थक्या निधान मितिनागमोक्त चैत्य संख्या वि रोधइति ॥