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मय श्री संघपट्टका
(३ )
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नथी करता केम जे श्रद्धानो जंग तथा मत्सरनी नत्पत्ति इत्यादिक 'दोषनो प्रसंग थाय ए हेतु माटे. वळी सिद्धांतना आदरवाळा जे सर्व यतिजन तथा श्रावक ते अनुक्रमे व्याख्यानादिकने विषे तथा चैत्य चिंताने विये अधिकारी ने एटले योग्य . एटले सिद्धांतमां कहेला विधिनुं वहुमान करनार एवो जे यति ते व्याख्यान करवामां अधिकारी तथा एवो जेश्रावक ते चैत्यनी चिंता करवामां अधिकारी ने ने सिद्धांत विधिवमे रहित एवो जे साधु. आदिक ते व्याख्यान आदि करवामां अधिकारी नथी एटलो अर्थ ले ने त्रण चार लोकनी दृष्टिए एटले विधिने विषे तत्पर,एवात्रण चार श्रावकनी दृष्टिए श्रा जगाए चैत्य अव्यनी वृद्धिश्रादिक चैत्यचिंता ते वारवा चोग्य ठे पण एकाकी निस्पृह पुरुषने पण ए काम करवा . योग्य नथी शाथी के लोकापवाद आदिक दोषनी प्राप्ति थाय'ए हेतु माटे ए प्रकारे प्रसंगे श्रावेलां वे काव्य तेनो अर्थ या प्रकारे करते देखायो.
टीका एवं चैवं विधः सिद्धांतान्निहितो विधिर्यत्र वर्तते तद् विधिचैत्य मनिशाकृतं अव्यतआयतनं शेव्यते इति नावतायतनंतु ज्ञानादित्रय ब्राजिष्णवः पंचविधाचारचारवः सुविहितलाधवः ॥ शुननावरूपाणां सतां वंदनादिनालव्या. नां ज्ञानादिलान हेतुत्वात् ॥
अर्थ:--- प्रकारनो सिद्धांतमां कहेलो जे विधि तेजेजगाए वरते ते ते विधिचैत्य अनिवाकृत अव्यथो आयतन कहीए . वीए. ने जाव थकी थायतननो ज्ञान दर्शन चारित्र एत्रणवमे शो
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