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________________ • ( ३४२ ) -4 जय श्री संघपट्टकः टीका:- अथास्तु नट विद्यादीनां तत्प्रादुर्भावः किंन विन्नं ॥ नहतावतापि श्राद्धानां श्रद्धया स्नात्रं विदधानानां तान्यपुएयदा निरितिचेन्न ॥ तेषां तत्प्रादुर्भावस्य सुरता दिवशप्राडुष्य गवदाशातनायाश्चानंतसंसारका रिएया रात्रिस्नात्रका रिश्रावक निबंधनत्वात् ॥ मानव्याजमंतरेण निशीथिन्यां तेषां रतार्थमपि प्रायेण जिनजवनागमनासंभवात् ॥ एवंच नटादिरागादि वृद्धिनिमित्तनावमासेषां श्रावकाणां कथं न मनजन्यपुएयनाशः ॥ अर्थः- हवे तुं एम कहतो होय जे एंतो नट विटा बिक कामी पुरुषोनी एवी प्रवृत्ति थाय बे तेमां अमारुं शुं गर्छु ? दमारुं शुं बेदायुं ? एणे करीने जे श्रद्धावमे स्नात्र करनार श्रावक लोकोने ए स्नात्र थकी थयुं जे पुण्य तेनी हानी यती नथी. एम तारे न कदेवु केम जे तेनो उत्तर कहीए बीए जे ते कामी पुरुषोनी की प्रवृत्तिनी उत्पत्ति थवी तेनुं कारण ते रात्रि स्नात्र करनार श्रावक हेतु माटे ने ते कामी पुरुषो संजोगादिकने विषे परवश थाय देते थकी उत्पन्न थर जे जगवंतनी प्रशातना तेने अनंत संसारं कारण बे. माटे रात्रि स्नात्र करनार ए सर्वेनो कार पिक थयो ए हेतु माटे केम जे रात्रि स्नात्रना मिष विना तेमनुं संजोगने श्रर्षे पण बहुधा जिनमंदिरमां श्राववानो संजव नथी ए हेतु माटे नटादिक पुरुषोनी रागादिकनी वृद्धितुं निमित्त कारणने पमानार 'श्रावक लोकने 'ए स्नात्र थकी केम पुण्यनो नाश न थाय एतो घायज. टीका:- किंच नटायसमंजसंप्रवृ निदर्शनेन श्राद्धानामप्य "
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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