________________
-
अथ श्री संघपट्टकर
-
(१७९)
wwwwwwwwwwwwwwwwwwwnam
अर्थः-ए प्रकारचें यथार्थ व्याख्यान करीएं त्यारे क्याथी चैत्यवासनो अवकाश आवे एटले चैत्यवासनुं स्थापन क्याथीज थाय वळी ते कडं जे समरादित्यनी कथाने विषे साध्वीनो चैत्यनीमांही प्रतिश्रय ले एटले तेमां रही ले तेने केवलज्ञान उपज्यु डे इत्यादि प्रतिपादन कर्यु तेणे करीने चैत्यवासतुं स्थापन करे ते पण समम लोकनी प्रकृतिने सुंदर लागे माटे निर्दोषने अतिशे सरस ने मधुर सुकुमार एवी था श्रेष्ट कथा तेने विषे जेम सारी पृथ्वीमा वीज नांखे ने ते विस्तार पामे तेम कोइक धूर्त पुरुषे ए चैत्यवासन प्रतिपादनरुपी बीज नांख्यु के. एटले ल ख्यु के एम संलव थाय ने.
टीकाः-श्रतएवावश्यक टीकायां पंचनमस्कारनिर्युक्तौ ॥रागदोस कसाया, इंदियाणी य पंचवि इत्यादि श्लोकं विवृण्वन् समरादित्यकथाकार एव चित्रमयूरनिगीर्णोदीर्णहारा दिनतिवझायां सर्वांगसुंदरीगणिन्याकथायां चैत्यवासाननिलापनैव केवलज्ञानोत्पादंप्रत्यपीपदत् ॥
अर्थः-एज हेतु माटे आवश्यकजीनी टीकाने विषे पंच नमस्कारनी नियुक्तिने विषे रागद्वेष कषाय पांच इंजियो पण इत्यादि श्लोक, विवरण करता जेम समरादित्यनी कथाना करनार तेणे चित्रमयूरे हारादिक गळी लीधो ने पागे काढी नांख्यो ३ त्यादि वात वमे बंधायली जे सर्वांगसुंदरी गणिकानी कथा तेने विष चैत्यवासकह्या विनाज केवल ज्ञाननी उत्पत्तिनुं प्रतिपादन कर्यु .
टीका-इत्थं च तत् ॥ कथमन्यथा तथा विधाः श्रुतधराः ।