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8. अथ श्री संघपट्टकः --
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मे. ए हेतु माटे पोताना श्रावक न करी राख्या होय तो निकानी प्राप्ति पण न थाय माटे आ कालमा श्रावकनो अंगीकार करखो ते युक्त जे.
टोकाः-तथा श्रागमेपि ॥ जा जस्स विई जा जस्स सं. हिई, पुवपुरिसकया मेरा ॥ सो तं श्रइकमंतो, असंतसंसारिख होइ इत्यादिना स्वीकृतगुरुपरिहारेणापरगुरोरंगीकारः श्राव. काणामनंतसंसारित्वायेतिपतिपादनेनास्यार्थस्यान्युपगमात् ॥ हरिनमसूरिणापि , सम्यक्त्वदीदारोपणावसरे श्राद्धानां धनधान्यस्वजनपरिजनादिसमेतस्या त्मनो गुरुसमर्पणानिधान नेन तत्स्वीकारस्य समर्थनात् ॥ ..
अर्थः-श्रागममां पण तेमज कधु बे जे जेनी स्थिति पूर्वपुरूषे करेली मर्यादा एटले गबनी स्थिति तेने जो अतिक्रमे तो श्रनंत संसारी थाय, इत्यादिके करीने पोते अंगिकार कर्या जे गुरु तेनो त्याग करे ने अन्य गुरूनो जो अंगिकार करे तो श्रावकने अनंतसंसारीपणानी प्राप्तिनुं प्रतिपादन कयु तेणे करीने श्राश्रमारा कहेला अर्थनी प्राप्ति थाय डे ए हेतु माटे. ने हरिजप्रसूरिये परा समकित दीक्षा आपवाना अवसरमां श्रावकने धन धान्य स्वजन परिजनादिके सहित एवो पोते श्रावक गुरूने अर्पण थाय एम कहेवाथी ते सर्वनो अंगीकार गुरूने थयो एम प्रतिपादन कर्यु ए हेतु माटे.
टीका:-॥ यदाह ॥ अहं तिपयाहिणपुवं, सम्मं सुद्धेण चिनरयणेण ॥ गुरूणो निवेयणं सबहेव दढ मप्पणो इत्थ ॥