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8. अथ श्री संघपट्टका
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मधुर स्वाध्यायनों शब्द तेने सांजलीने तथा केटलाक साधुनों असंख्य लावण्य शोनानां धारण करनार सुंदर शरीर तेमने देखीने विरहिशी जुवान स्त्रोयोने काम क्रीमा करवानी इच्छा थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय. ए प्रकारे स्त्रीयोने तथा साधुने परस्पर निरंतर रूपनुं देख गीतनुं सांजलq ए आदि कारणे करीने दुःखदायी महा कामदेव संबंधी विकार करीने चारित्रनो नाश-थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय माटे साधुए परघरमां निवास न करवो. . .
टीका-॥ यथोक्तं ॥ श्रीवजियं वियाणह इत्थोएं जथ्थ काणरूवाणि ॥ सदायन सुच्चंती, ताविय तेसिं न पेच्छेहि ॥बनवयस्स अगुत्ती, बजानासो यपीश्वुट्ठीय ॥ साधु तवोवणवासो, निवारणा तिथ्य परिहाणी
अर्थ:-ते शास्त्रमा कडं ले जे साधुने रहेवानुं स्थान स्त्री वर्जित जाणवू जे स्थाने स्त्रीयोनां रूप तथा शब्द न देखाय न संजलाय तथा ते स्त्री पण ते साधुने न देखे एवं स्थान साधुने रहेवा योग्य बे केम जे एवी रीते न होय तो ब्रह्मव्रतनी गुप्ति न रहे तथा लजानो नाश थाय तथा प्रीतिनी वृद्धि थाय, माटे साधुने तपोवनमां निवास करवो जेथी तीर्थनी हानिनुं निवारण थाय..
टीका:-तथा लौकिका अन्याहुः ॥ शृणु हृदयरहस्यं य प्रशस्यं मुनीनां, न खलुन खलु योषित्संनिधिः सं विधेयः।। हरति हि हरिणादी विप्रमदिनुरप्रप्रहतशमतनुत्रं चित्तमप्युन्नताना.
अर्थ:--लौकिकमां पण एम कहे जे 'जे, मुनिने पण वखा