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आगम के अनमोल रत्न समवशरण की रचना हुई । एक दिन मृगावती सती अपनी गुरुभानी चन्दना सती की आज्ञा लेकर भगवान के दर्शनार्थ गई । संध्या का समय था । सूर्य चन्द्र भो उस समय अपने मूल विमान से दर्शनार्थ आये थे । अतः प्रकाश के कारण समय का पता नहीं लगा सूर्य चन्द्र की उपस्थिति के कारण रात्रि भी दिवस की तरह लगती थी। सूर्य चन्द्र के चले जाने पर सहसा रात्रि दिखाई देने लगी। सर्वत्र अन्धेरा छा गया । महासती मृगावती उसी समय वापस लौटी । वहाँ आफर उसने चन्दनबाला को वन्दना की । प्रवर्तिनी होने के कारण उसे उपालंभ देते हुए चन्दनवाला ने वहा-साध्वियों को सूर्यास्त के बाद उपाश्रय के बाहर न रहना चाहिये ।
मृगावती अपने अपराध का पश्चाताप करने लगी। यथासमय चन्दनवाला आदि सब साध्वियां अपने-अपने स्थान पर सो गई लेकिन मृगावती बैठी-वठी पश्चाताप करती रही । पश्चात्ताप के कारण उसके कर्ममल धुल गये । वह शुक्लध्यान की परमोच्च स्थिति में. पहुँच गई । जिसके कारण घनघाती कर्म नष्ट हो गये । उसे केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो गया। वह अपने ज्ञान द्वारा लोकालोक को हस्तामलक की तरह देखने लगी । उसी समय एक काला नाग महासती चन्दना के हाथ की तरफ बढ़ा आ रहा था । यह देखकर मृगावती ने चन्दनवाला के हाथ को उठा लिया। हाथ के छुए जाने से चन्दनवाला को नींद टूट गई। पूछने पर मृगावती ने सांप की बात कह दी और निद्रा भंग करने के लिए क्षमा मागी ।
चन्दनवाला ने पूछा--अन्धेरे में आपने साप कैसे देख लिया? मृगावती ने कहा--आपकी कृपा से कैवल्य की प्राप्ति हो गई है। यह सुनते ही चन्दनबाला मृगावती के चरणों में पड़ी और केवली आशातना के लिए क्षमा मांगने लगी । उसे भी पश्चाताप होने लगा। पश्चाताप करतेकरते चन्दना के घनघाती धर्म नष्ट हो गये और उसे भी केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । अब केवलज्ञानी महासती चन्दना ३६०००