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आगम के अनमोल रत्न
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अध्ययन समाप्त होने पर इन्होंने अत्यन्त कठोर तप प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने अपना सारा जीवन तपोमय बना डाला । अन्त में एक मास की संलेखना-२९ दिन का संथारा करके आरोचना तथा प्रतिक्रमण के साथ समाधिपूर्वक सुबाहु अनगार ने देह का त्याग किया और मर कर वे प्रथम देवलोक सौधर्म में देव वने । वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर वे आगामी भव में मनुष्य का भव करके पुनः दीक्षित होकर पांचवे देवलोक में देव बनेंगे। फिर मनुष्य भव प्राप्तकर सातवें देवलोक में पुनः मनुष्य भवकर नौवें देवलोक में, पुनः मनुष्य भवकर ग्यारहवें देवलोक में तथा पुनः मनुष्य भव में आकर सर्वार्थसिद्ध विमान मे देव बन कर महाविदेह में सिद्धि प्राप्त करेंगे ।
भद्रनन्दी ऋषभपुर नाम का एक समृद्धिशाली नगर था। उसके ईशान कोण मे स्तूप करण्डक नाम का एक रमणीय उद्यान था, उसमें धन्य नाम के यक्ष का एक विशाल मन्दिर था । वहाँ धनावह नाम के राजा राज्य करते थे। उसकी सरस्वतीदेवी नाम की रानी थी। किसी समय शयन भवन में सुख शय्या पर सोई हुई महारानी सरस्वती ने स्वप्न में एक सिंह को देखा जो कि आकाश से उतरकर उसके मुख में प्रवेश कर गया । वह तुरत जागी और उसने अपने पति के पास आकर अपने स्वप्न को कह सुनाया । स्वप्न को सुनकर महाराज धनावह ने कहा कि इस स्वप्न के फलस्वरूप तुम्हारे एक सुयोग्य पुत्र होगा ।
___ समय आने पर महारानी सरस्वती देवी ने एक रूप गुण संपन्न वालक को जन्म दिया । माता पिता ने उसका नाम भद्रनन्दी रक्खा। योग्य लालन पालन से वह चन्द्रकला की भाँति बढ़ने लगा । कला. चार्य के पास रहकर उसने ७२ क्लाएँ सीखली । युवा होने पर माता पिता ने उसका एक साथ श्रीदेवी आदि प्रमुख पाचसौ राजकन्याओं के साथर विवाह कर दिया और सबको अलग अलग दहेज मिला । अब वह