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आगम से अनमोल रत्न
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'पिताजी ! धर्माचरण में धन, स्वजन और काम भोगों का क्या प्रयोजन है ? हम गुणवन्त श्रमण एवं भिक्षु बन कर अप्रतिबद्ध विहारी होंगे।"
पुत्रों के उपदेशों का असर भृगु तथा उसकी पत्मी यशा पर पड़ा । उन्होंने सोचा, "कामभोग भोगने का समय होते हुए भी तथा भोग उपभोग की समस्त सामग्री के होते हुए भी ये बालक इन सब का परित्याग कर श्रमण वन रहे हैं तो हम जैसे भुक्त-भोगियों को संसार में रहना उचित नहीं है। यह सोच वे भी धन वैभव का परित्याग कर पुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण करने के लिये इषुकार नगर की ओर चल पड़े और मुनि के पास आकर चारों दीक्षित होगये। ___इधर जब पुरोहित के समस्त परिवार के साथ दीक्षित होने के समाचार राजा को मिले तो उसने पुरोहित के समस्त धन वैभव को राजकोष में रख लेने का विचार किया । राजा के इस विचार का पता जब महारानी कमलावती को लगा तो वह राजा के पास आई और कहने लगी
"नाथ वमन किए हुए पदार्थ को खाने वाला प्रशंसा का पात्र नहीं होता । आप ब्राह्मण द्वारा त्यागे हुर धन को ग्रहण करना चाते हैं, यह उचित नहीं।"
राजन् ! यदि यह सारा जगत आपका होजाय, सारे धनादि पदार्थ भी हमारे पास आजाय तो भी वे सब अपर्याप्त ही हैं। वे सब पदार्थ मरणादि कष्टों के समय हमारी किसी प्रकार की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं।"
___ "हे राजन् ! जब मृत्यु का समय भावेगा तब हम इस विशाल वैभव का परित्याग कर अवश्य भरेंगे । हे नरदेव ! इसलोक में मृत्यु के समय केवल धर्म ही हमारा रक्षक एवं त्राता है । अत. राजन् ! हमें इन सब बन्धनों से मुक्त होकर प्रव्रज्या ग्रहण करनी चाहिये ।" कमलवतो रानी के उपदेश से राजा ने राज्य वैभव का परित्याग कर दिया । वह भी रानी कमलावती के साथ दीक्षित हो गया ।