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________________ आगम के अनमोल रत्ना मैं आजीवन ब्रह्मचारी हूँ। हिंसा, झूठ;' चोरी, मैथुन और परिग्रह का मैं आजीवन त्यागी हूँ। हे राजन् ! इस कन्या के साथ जो कुछ भी व्यवहार हुआ है यह सब कुछ यक्ष की चेष्टा का ही फल है । मेरा इससे कोई सम्बन्ध नहीं हैं । मुनि के इन वचनों को सुनकर राजा और राजकन्या दोनों खिन्नचित्त होकर अपने राजभवन में वापिस चले आये । तब राजा से रुद्रदेव नामक पुरोहित ने कहा-राजन् | यह ऋषि पत्नी, जो कि उस मुनि ने त्याग दी है अव किसी ब्राह्मण को देनी चाहिये । राजा ने पुरोहित को अपनी कन्या दे दी। पुरोहित ने राजा से कहा-राजन् ! इस ऋषि पत्नी को यज्ञपत्नी बनाने के लिये एक विशाल यज्ञ का आयोजन होना चाहिये । राजा ने यज्ञ करने की आज्ञा दे दो। राजाज्ञा प्राप्त कर रुदेव ने विशाल यज्ञ मण्डप बनवाया और दूर-दूर से विद्वान ब्राह्मणों को यज्ञ में सम्मलित होने के लिये आमन्त्रित किया और वे सब आगये । यज्ञ में सम्मलित होनेवाले ब्राह्मणों के लिये रुद्रदेव ने अनेक प्रकार की भोजन सामग्री तयार करवाई। इस अवसर पर हरिकेशबल मुनि अपने मासोपवास के पारणे के लिए उस यज्ञ मण्डप में आये और आहार की याचना करने लने । यज्ञ वाटिका में खड़े हरिकेशवल मुनि को देख ब्राह्मण लोग अनार्यों की भाँति 'उस मुनि का उपहास करते हुए कहने लगे-- घृणित रूप का, काले रंग का, चपटी नाक वाला, पिशाच जैसा अदर्शनीय तथा अत्यन्त जीर्ण और गन्दे वस्त्र पहने हुए तू कौन है और यहाँ किस लिए आया है ? मुनि के शरीर में छुपा हुआ यक्ष बोला-मै श्रमण हूँ, संयती व ब्रह्मचारी हूँ । धन परिग्रह और पचन पाचन से निवृत्त हूँ। इस भिक्षा बेला में दूसरों के द्वारा अपने लिये बनाये गये भोजन को लेने के लिये यहाँ आया हूँ। यहाँ बहुत सा अन्न बाँटा जा रहा है । खाया और भोगा
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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