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________________ vee आगम के अनमोल रत्न S · तीन दिन तप के साथ चौथा दिन भी तप में गुजरा। पाँचवें दिन फिर वे गोचरी के लिये गये । पूर्व दिन की तरह सर्वत्र घूमे पर योग नहीं मिला । इसी प्रकार छठां दिन भी बीता । ढंढणमुनि सोचने लगे श्रीकृष्ण की इतनी बड़ी नगरी में मुझे आहार का योग क्यों नहीं मिलता ? अवश्य इसमें पूर्वकृत अन्तराय कर्म वाधक होना चाहिए । जिज्ञासा लिये मुनि ढंढण भगवान अरिष्टनेमि के समीप आये और वन्दन कर विनय पूर्वक पूछने लगे - भगवन् ! द्वारिका जैसी विशाल नगरी में मैं बहुत घूमता हूँ किन्तु मुझे आहार नहीं मिलता । इसका क्या कारण है ? भगवान ने कहा -- ढंढण 1 पूर्व जन्म के निकाचित अन्तराय कर्म के कारण ही तुझे आहार नही मिल रहा है। आज से ९९९९९९९ वे भव में तू विन्ध्याचल प्रदेश में हुण्डक ग्राम में सौवीर नाम का समृद्ध किसान था । तेरे पर राजा की महती कृपा थी । एक बार तुझे महाराज गिरिसेन ने राज्य की तमाम जमीन जोतने की आज्ञा दी । महाराज की आज्ञा पाकर तू अपने पाँच सौ हलवाहकों के साथ खेतों में गया और हलों में बैलों को जोड़कर उन्हें चलाना प्रारम्भ कर दिया । खेत जोतते जोतते वैल थक गये और बीच-बीच में खड़े भी होने लगे । मध्याह्न का समय हो गया था । सूर्य का भयंकर ताप सबको संतप्त कर रहा था । तेरे साथी किसान व बैल भूख और प्यास से व्याकुल होने लगे । इधर भोजन का भी समय आ गया | किसानों के लिये भोजन और बैलों के लिए चारा भी आ गया था। भोजन आजाने पर सभी ने अपने अपने वैलों के जूड़े खोल थिये । जब तुझे इस बात का पता लगा तो उन पर तू बड़ा क्रुद्ध हुआ और गरजते हुए बोला- अभी भोजन नहीं करना है। पूरा एक एक चक्कर और लगावो फिर खाना खाओ । वे गरीब किसान तुम्हारी भाज्ञा की अवहेलना कैसे कर सकते थे । मज़बूर होकर उन्होंने अपने अपने हलों में पुनः बैलों को जोड़ा
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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