________________
तीर्थकर चरित्र
कुछ समय के वाद विषय भोगों से विरत होकर महाराजा शैतं. बल ने दीक्षा लेने का विचार किया और राज्याभिषेकपूर्वक समस्त राज्य अपने पुत्र महावल को सौपकर वे बन्धन से छुटे हुए हाथी की तरह घर से निकल पड़े व आचार्य के समीप जाकर चारित्र ग्रहण कर लिया।
पिता के दीक्षित होने पर महाराजा महावल ने राज्य की बागडोर सम्हाली । वे अत्यन्त न्यायपूर्वक राज्य करने लगे । उनके जैसे न्यायी व प्रजावत्सल राजा को पाकर प्रजा अपने को धन्य मानने लगी।
महाराजा महावल के चारों बुद्धि के निधान साम, दाम, दण्ड, भेद नीति के ज्ञाता चार महामन्त्री थे। इनके नाम थे स्वयंवृद्ध, संभिन्नमति, शतमति और महामति । ये चारों महाराजा के बाल मित्र व राज्य के हितचिंतक थे । उनमें स्वयंबुद्धमन्त्री सम्यग्दृष्टि था । शेष तीन मन्त्री मिथ्यादृष्टि थे । यद्यपि उनमें इस तरह मतभेद था परन्तु स्वामी का हित करने में चारों ही तत्पर थे।
एक समय महाराज महावल अपनी राजसभा में बैठे हुए थे। चारों मन्त्री भी महाराज के साथ अपने अपने आसन पर आसीन थे। शहर के गण्य मान्य नागरिक भी सभा में उपस्थित थे । राजनर्तकी अपने मनमोहक नृत्य से महाराज व सभासदों को मन्त्रमुग्ध कर रही थी। महाराज बड़े मुग्ध होकर नर्तकी का नृत्य देख रहे थे । महाराज महायल की इस आसक्ति को देख कर महामन्त्री स्वयबुद्ध सोचने लगा हमारे स्वामी ससार के कार्यों में इतने अधिक निमंन हैं कि उन्हें परलोक सम्वन्धी विचार करने का समय भी नहीं मिलता । स्वामी के इन्द्रियों पर विजय पाने की अपेक्षा इन्द्रियाँ स्वयं उन पर विजय पा रही हैं । अगर यही स्थिति रही तो महाराज महाबल का परलोक अवश्य बिगड़ जायगा । अतः राज्य और स्वामी के सच्चे हितैषी होने के नाते महाराज को इस मोह के कीचड़ से निकालना. चाहिए । यह विचार कर स्वयबुद्ध मन्त्री नम्र भाव से बोला-राजन् ! जो शब्दादि विषय हैं वहीं संसार के कारण हैं, जो संसार के मूल