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वारह चक्रवर्ती
११. जय चक्रवर्ती राजगृह नगर में समुद्रविजय नाम के राजा राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम अभया था । अभया रानी ने १४ महास्वप्न देखे । गर्भकाल के पूर्ण होने पर महारानी ने उत्तम लक्षणवाले पुत्र को जन्म दिया । बालक का नाम जयकुमार रखा । जय युवा हुभा । पिताने जय को सम्पूर्ण राज्य का भार सौंप कर दीक्षा ग्रहण की । जय पिता द्वारा दिये गये राज्य का न्याय नीति से पालन करने लगे।
एक समय जय राजा की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। क्रमशः अन्य तेरह रत्न भी उत्पन्न हुए । रत्नों की सहायता से जय ने भरत के ६ खण्ड पर विजय प्राप्त कर भरत जैसा वैभव प्राप्त किया। दिग्विजय कर वापस जब लौटे तो देवोंने आपको चक्रवर्ती पद से विभूषित किया । चक्रवर्ती पद का वारह वर्ष तक उत्सव मनाया गया। इस समय के बीच उन्होंने प्रजा को कर मुक्त किया । लम्बे समय तक चक्रवर्ती का वैभव भोगने के बाद जयचक्रवर्ती ने प्रवज्या ग्रहण को । दीक्षा लेकर कठोर तप करते हुए आपने घनघाती कर्म का क्षय किया और केवलज्ञान प्राप्त किया । अन्तिम समय में आपने सिद्धि प्राप्त की।
१२ ब्रह्मदच आप कांपिल्यपुर (पंचाल जनपद की राजधानी) के राजा ब्रम्ह के पुत्र थे। इनकी माता का नाम चुलनी था। इनके वाल्यकाल में ही पिता की मृत्यु हो चुकी थी। मृत्यु के समय राजा ब्रम्हने अपने चार अनन्य मित्र वाराणसी के राजा कटक, गजपुर के राजा कणेरदत्त, साकेत के राजा दीर्घपृष्ट और चंपा के राजा पुष्पचूल को अपने पुत्र और राज्य के सरक्षण की जिम्मेदारी दी थी । ये राजा लोग वारी बारी से राज्य का सरक्षण करते थे। एक बार साकेत के राजा दीर्घपृष्ट कांपिल्यपुर थे उस समय चुलनी और दीर्घपृष्ट में प्रेम सम्बध हो गया था। दीर्घपृष्ट की नियत खराब हो गई । उसने अपने रास्ते के कोटे ब्रह्मदत्त को