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तीर्थड्वर चरित्र
२४७ सिंह-भगवन् ! आपका वचन सत्य हो । हम यही चाहते हैं कि आप दीर्घजीवी हों परन्तु आपका शरीर प्रतिदिन क्षीण होता जाता है यह बड़े दुःख की बात है। क्या इस बीमारी को हटाने का कोई उपाय नहीं? ____ भगवान ने कहा-सिंह ! अवश्य है । तेरी इच्छा है तो तू मैडिय गांव में रेवती गाथापत्नी के यहाँ जा । उसके घर कुम्हरे (कौरना)
और विगोरे से बनी हुई दो औषधियां तैयार हैं । इनमें से पहली जो मेरे लिये बनाई गई है, उसकी जरूरत नहीं । दूसरी जो रेवती ने अन्य प्रयोजनवश बनाई है वह इस रोग-निवृत्ति के लिये उपयोगी है, उसे ले मा ।
भगवान की भाज्ञा पा सिंह अनगार बड़े प्रसन्न हुए। वे रेवती के घर पहुँचे । रेवती ने सिंह अनगार का बड़ा विनय किया और उन्हें निर्दोष बिजोरा पाक बहराया । उसे लेकर सिंह जनगार भगवान के पास आये । भगवान ने उस भौषधि का अनासक्त भाव से सेवन किया जिससे भगवान एकदम अच्छे हो गये।
भगवान पूर्ववत् स्वस्थ हो गये। उनका शरीर पहले की तरह तेजस्वी होकर चमकने लगा । रेवती गाथापत्नी ने इस दान से तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन किया । वह आगामी उत्सर्पिणी काल में १७ वा तीर्थकर समाधिनाथ होगी। इस समय देवलोक में वह देवऋद्धि का उपभोग कर रही है । भगवान के स्वस्थ होने से समस्त संघ प्रसन्न एवं संतुष्ट हो गया ।
भगवान ने श्रमणसंघ के साथ मिथिला की ओर विहार कर दिया । मिथिला पहुँचकर भगवान ने उस वर्ष का चातुर्माच मिथिला में ही पूरा किया । चातुर्मास समाप्ति के बाद भगवान श्रावस्ती पधारे। २८चों चातुर्मास
श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में ठहरे । उनदिनों पार्थापत्य स्थविर केशी श्रमण भी अपने पांच सौ साधुओं के साथ श्रावस्ती के तिन्दुक उद्यान में पधारे थे।