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तीर्थड्वर चरित्र
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दीक्षा महोत्सव किया। राजकुमारी राजीमती साध्वी राजीमती बन गई। श्रीकृष्ण तथा सभी यादवों ने उसे वंदना की। अपनी शिष्याओं सहित राजीमती तप-संयम की आराधना करने लगी। थोड़ेसमय में ही वह वहुश्रुत हो गई।
एक वार राजीमतो भगवान अरिष्टनेमि के दर्शन के लिये गिरनार पर्वत की ओर जा रही थी । मार्ग में जोर से भाँधी चलने लगी। साथ में पानी भी बरसने लगा । कालीघटाओं के कारण अन्धेरा छा गया। साध्वी राजीमती उस ववण्डर में पड़कर अकेली रह गई । सभी साध्वियों का साथ छुट गया । वर्षा के कारण उसके सारे वाल भीग गये। राजीमती को पास ही में एक गुफा दिखाई पड़ी। कपड़े सुखाने के विचार से वह उसी में चली गई। उसने एकान्त स्थान देख कर एक एक करके समस्त वस्त्र उतार दिये और सुखाने के लिये फैला दिये।
रथनेमि उसी गुफा के एक कोने में ध्यान कर रहे थे । अन्धेरा होने से राजीमती को वे दिखाई नहीं दिये किन्तु रथनेमि की दृष्टि राजीमती के नग्न शरीर पर पड़ी । उनके हृदय में कामवासना जागृत हो गई एकान्त स्थान, वर्षा का समय, सामने वस्त्र रहित सुन्दरी, ऐसी अवस्था में रथनेमि अपने को न सम्भाल सके । वे राजीमती के निकट गये और कहने लगे-सुन्दरी ! मैं तुम्हारा देवर रथनेमि हूँ। अचानक एक पुरुष को अपने सामने देख वह अकचका गई । उसी समय उसने अपने अङ्गों को ढंक लिया ।
राजीमती को सम्बोधितकर रथनेमि कहने लगे-प्रिये ! डरो मत ! भय और लज्जा को छोड़ दो! आओ हम तुम मनुष्योचित सुख भेगें। यहस्थान एकान्त है, कोई देखने वाला नहीं है । दुर्लभ मानव देह को पाकर सुख से वंचित रहना निरी मूर्खता है।