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आगम के अनमोल रत्न
राजीमती ने रथनेमि का भावभीना स्वागत किया । वह कहने लगी-मापके दर्शन कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। दूती ने आपको जैसी प्रशंसा की थी वे सभी गुण आप में मौजूद हैं। भगवान अरिष्टनेमि जैसे त्रिलोकपूज्य महामानव के भाई होने को आपको सौभाग्य प्राप्त है । आप जैसा भाग्यशाली और कौन हो सकता है ?
राजीमती के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर रथनेमि फूले नहीं समाये । वे कहने लगे-सुन्दरी ! बहुतदिनों से मैंने आपको अपने हृदय की अधीश्वरी मान रखा था, किन्तु भाई के साथ आपके सम्बन्ध की बात सुनकर मै चुप हो गया । मालूम पड़ता है मेरा भाग्य तेन है इसीलिए नेमिकुमार ने इस सम्बन्ध को नामंजूर कर दिया । निश्चय होने पर भी मैं एक बार आप के मुँह से स्वीकृति के शब्द सुनना चाहता हूँ। फिर विवाह में देर न होगी । यह कहकर रथनेमि ने पेय का कटोरा आगे बढ़ाया ।
राजीमती रथनेमि के मह से यह बात सुनकर मनमें सोचने लगी-मोह की विडम्बना विचित्र है। वासना के आवेश में यह रथनेमि अपने भाई के स्नेह को भी भूल गया है । अस्तु, अब इन्हें कर्तव्य का भान कराना ही होगा !
राजीमती ने कटोरा ले लिया और उसमें वमन की दवा मिलाकर उसे पी गई । खीरके पीते ही दवा के प्रभावसे तत्काल के हो गई ।
उसने सारी के" को कटोरे में उतार कर कहा-राजकुमार ! लीजिए ! और इसे पीजिए ।
वमन के कटोरे को सामने देखकर राजकुमार रथनेमि अत्यन्त ऋद्ध हुए और बोले-राजीमती ! तुम्हारा यह साहस ! तुम्हें अपने रूप पर इतना घमण्ड है ? क्या मुझे कुत्ता या कौमा समझ रखा है जो वमन की हुई वस्तु पिलाना चाहती हो ? राजीमती-वमन हुआ पदार्थ है तो क्या हुआ ? है तो वही जो आप लाये थे और जो आप को