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आगम के अनमोल रत्न
राजकुमार की खोज करेंगे । कुँआरी कन्या के, सौ वर। ऐसे संन्यासी का क्या विश्वास । बेटी जो हुआ सो ठीक हुभा । पांच फेरे फिर गये होते तो न जाने क्या होता ! राजमाता को संतोष था।
राजीमती बोली-माताजी ! आप क्या कहती हैं ! "यह प्रीति इस भव में कम हो सकती है ! राजकुमार को देखते ही मेरे मन में अनन्तभवों की प्रीति उत्पन्न होती थी। मैं तो उनसे कभी का विवाह कर चुकी थी"
पुत्री ! लग्न-संस्कार तो होना ही चाहिये न ! बिना उसके विवाह कैसा ! पुत्री तू मूर्खता न कर ! भावावेश में अपना भव न बिगाड़ ! यह रूप, यह यौवन, यह विद्या ?
राजकुमारी हँसी-माताजी ! इसीलिये कहती हूँ कि मेरा विवाह तो हो चुका था । लग्नसंस्कार और विधि से क्या प्रयोजन ? ये तो हृदय में कमी के मेरे पति हो चुके थे । यह अग्नि यह लममंत्र यह राजगुरु तो आन्तरिक लग्न होने के पश्चात् होनेवाली शोभा के पुतले हैं। राजकुमार नेमि मेरे हैं और मैं उनकी हूँ। भव भव की प्रीति आज कैसे ते हूँ ? बस हमारा विवाह अमर है।
पुत्री ! नेमिकुमार तो दीक्षा लेंगे क्या उनके पीछे तुम भी ऐसी ही रह जाओगी।
राजीमती-माताजी जब वे दीक्षा लेंगे तो मैं भी उनके मार्गपर चलँगी । पति कठोरसंयम का पालन करे तो पत्नी को भोगविलासों में पड़े रहना शोभा नहीं देता । जिस प्रकार वे काम-क्रोध आदि आत्मा के शत्रुओं को जीतेंगे उसी प्रकार मैं भी उनपर विजय प्राप्त करूंगी।
राजीमती के इस दृढ़ निश्चय को कोई बदल नहीं सका । वह भी नेमिकुमार के मार्ग पर चलने के लिये कृतनिश्चयी हो गई । अव वह अपना सारासमय धार्मिक आचरणों में बिताने लगी। . राजीमती में स्त्रीहृदय की कोमलता महासती की पवित्रता और महापुरुषों की वीरता का अपूर्वमिश्रण , था । उसकी विचारधारा सांसारिक भोगविलास से उठकर त्याग के रूप में परिणित हो - गई थी।