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आगम के अनमोल रत्न
गये लेकिन कबूतर का पलड़ा भारी ही रहा । अन्त में महाराज स्वयं पलड़े में बैठ गये। - - - __महाराज का यह आत्म समर्पण देखकर देव अवाक हो गया । स्वर्ग से पुष्प बरसने लगे । सर्वत्र धन्य धन्य की आवाज आने लगी। 'शरणागतरक्षक महामानव मेघरथ की जय हो' यह कहता एक दिव्य कुण्डलधारी देव प्रकट हुआ और महाराज मेघरथ को प्रणाम कर वोला
___ हे राजन् ! मै ईशान देवलोक का एक देव हूँ। एकबार देव सभा में ईशानेन्द्र ने आपकी दयालुता धार्मिकता और शरणागत वात्सल्य आदि गुणों की प्रशंसा की । मुझे इन्द्र की बात पर विश्वास नहीं हुआ और मै आपकी परीक्षा करने यहाँ आया हूँ। आप धन्य हैं। जैसी इन्द्र ने आपकी प्रशंसा की थी, उससे अधिक आप गुणवान हैं। आपके जन्म से यह पृथ्वी धन्य हो गई है। मैंने अकारण ही भापको जो कष्ट दिया उसके लिये आप क्षमा करें।
देवने अपनी माया समेटली और वह अपने स्थान चला गया। महाराज मेघरथ ने प्रजाजनों के पूछने पर कबूतर और बाजरूप धारी देवों का पूर्वभव बताया । '
एक बार महाराज पौषधव्रत कर रहे थे। उन्हें अठ्ठम तप था। धर्म ध्यान में निमग्न देखकर ईशानेन्द्र मेघरथ राजा को प्रणाम करने लगा। हाथ जोड़ते हुए इन्द्र को देखकर इन्द्रानियों ने पूछा-स्वामिन् ! आप किस को नमस्कार कर रहे हैं ? इन्द्र ने कहा-पुण्डरीकिणी नगर के दृढधर्मी एव धर्म ध्यान में निमग्न मेघरथ को मै प्रणाम कर रहा हूँ। महाराजा मेघ आगामी भव में सोलहवे तीर्थकर भगवान होंगे। उनका ध्यान इतना. निश्चल और दृढ़ होता है कि उन्हे चलायमान करने में कोई भी देव या देवी समर्थ नहीं है। - इन्द्र की इस बात पर सुरूपा और प्रतिरूपा नामकी दो इन्द्रानियों को विश्वास नहीं हुआ। वे मेघरथ को ध्यान से विचलित करने