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आगम के अनमोल रत्न
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केवली के मुख से अपना भविष्य सुनकर अमिततेज तथा श्रीविजय ने दीक्षा ग्रहण की और अन्त में अपनी आयु का क्षय सन्निकट जान कर दोनों मुनियों ने पादोपगमन संथारा कर लिया । संथारा के चलते श्रीविजय मुनि के मन में अपने पिता त्रिपृष्ठ वासुदेव का स्मरण हो आया । वे सोचने लगे-मेरे पिता तो तीन खण्ड के स्वामी थे उन्हें वासुदेव पद मिला था किन्तु मै एक साधारण राजा ही बना रहा। अब यदि मेरी साधना का उत्तम फल हो तो मैं भी वासुदेव बनें और तीन खण्ड पर एकछत्र राज्य करूँ । श्रीविजय मुनि ने अपनी उत्कृष्ट. साधना का इस प्रकार निदान कर लिया। अमिततेज मुनि ने निदानरहित संयम साधना की। दोनों मुनिवर आयु पूर्ण करके प्राणत नाम के दसवें कल्प में सुस्थितावर्त और नन्दितावर्त नामके विमान के स्वामी मणिचूल और दिव्यचूल नाम के देव हुए । वहां उन्होंने बीस सागरोपम की आयु प्राप्त की। छठा और सातवाँ भव :
जम्बूद्वीप की सीता नदी के दक्षिण तट पर शुभा नाम की रमणीय नगरी थी। वहाँ के शासक का नाम स्तिमितसागर था । उसकी वसुन्धरा और अनुद्धरा नाम की दो रानियाँ थीं।
एक रात्रि में महारानी वसुन्धरा ने बलदेव के जन्म की सूचना देने वाले चार महास्वप्न देखे । अमिततेज का जीव प्राणत केल्प से च्युत होकर वसुन्धरा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । गर्भकाल के पूर्ण होने पर वसुन्धरा रानी ने श्रीवत्स के चिन्ह वाले श्वेतवर्णी एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। बालक का नाम 'अपराजित' रखा गया ।
अनुद्धरा देवी ने भी वासुदेव के जन्म के सूचक सात महास्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर अनुद्धरा ने श्यामवर्णी एक सुन्दर पुत्र को जन्म दियां । उसका नाम 'अनन्तवीर्य' रखा गया। दोनों ने कलाचार्य के पास रहकर तत्कालीन समस्त विद्याएँ सीखली । वे युवा