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उपसंहार
गरतीय संस्कृति नौनिक नत्व है-न्याग, तपस्या और वैराग्य । भारतीय जन-जीवन के कणऋण ने ये मौलिक तब इनने धूल-निन गए है कि जीवन में एकमेक हो गए है । भाग्नीय संस्कृति के मृल में भाग नहीं, न्गग है । यह भौतिक नहीं, आध्यान्मिक है । भाग्नीय सस्कृति क्या है भोगवाद र न्यावाद की विजय । नन पर मन का नयघोष । बानना पर नयम का जयनाद और क्या है वह ? विचार में आगर, और चार में विचार।
जिस माधु-चरित महापुस्प ने इस बाबत सस्कृति की रक्षा की है-उम भूलकर भी भुलाना कठिन है, शक्य नहीं है। पूज्यपाठ गुन्देव श्री रनचन्द्र जी महागज उसी अमर-सस्कृति के उद्गाता, सजग प्रहरी गैर सुनन अधिनता थे।
गुरुदेव च्या 'बान और कृति के सुन्दर समन्वय । विचार में आचार, और आवार में विचार । बेथे, मनोविजेता, अतएड बेथे, जगतो विजेता । उन्होंने निर्मल और अगाध नान पाया, पर उसका महकार नहीं किया। उन्होंने महान त्याग किया, पग्नु न्याग का मोह उनके मन में नही था। उन्होंने उत्कृष्ट तपस्या गै, किन्तु उसका प्रचार नहीं किया। उन्होंने वैगग्य की उत्कट साधना की पर, उसका प्रसार नहीं क्गि।
जन्म, जीवन और मरण-यह कहानी है। मनुज की । परन्तु गुन्हेंब का जन्म था कुछ करने के लिए । उनका जीवन ग, पन्-हित नावन के लिए । उनका मरण था, फिर न मरने के लिए।
बचपन, जवानी और वुढापा-यह इतिहास है, मानव का । किन्तु उन्होंने नया मोड दिया, इस इनिहाउ गे । उनका बचपन बेल-ट के लिए नहीं ग, वह था बान की साधना के लिए । उनकी जवानी गंग के लिए नहीं. वह थी सयम की साधना के लिए । उनका बुटापा अभियाप नहीं, वह था एक मगलमय बन्दान ! पृष्ट गुम्देव ने अपने जीवन का सबस्त्र समर्पित कर दिया था, सर्वजन-हिनाय और संबंजन-मुलाय।