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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ की आज्ञा का शिष्य के समान पालन करते थे। आचार्य श्री की भक्ति का वह आदर्श प्रस्तुत किया, जो समस्त सघ मे अनुशासन का एक महान् चिर-यशस्वी आदर्श ही बन गया। विनम्रता की प्रतिमूर्ति गुरुदेव जितने महान् थे, उतने ही विनम्र भी थे। आप एक पुष्पित एव फलित विशाल वृक्ष के समान ज्यो-ज्यो महान् हुए, यशस्वी हुए, प्रख्यात एव प्रतिष्ठित हुए, त्यो त्यो अधिकाधिक विनम्र होते चले गए। गुरुजनो के प्रति ही नहीं, अपने से लघु जनो के प्रति भी आपका हृदय प्रेम से छलकता था। छोटे से छोटे साधुओ की भी रोगादि कारण मे आपने वह सेवा की है, जो आज भी यशोगाथा के रूप मे गाई जा रही है। आप अपने युग के महान शास्त्राभ्यासी और गम्भीर विद्वान् थे। आपकी प्रतिष्ठा जनता मे सर्वत्र अपने चरम बिन्दु पर पहुंची हुई थी, फिर भी आप अहकार से दूर थे और अपने को एक साधारण जिज्ञासु मात्र समझते थे। केवल समझते ही न थे, अपितु स्वरचित ग्रन्थो मे अपनी लघुता का मुक्तभाव से सर्वथा नि सकोच होकर उल्लेख करते थे। मोक्ष मार्गप्रकाश की प्रशस्ति मे आपने अपने सम्बन्ध मे लिखा है बार-बार कर जोड कर गुणवन्त सू अरदास । अल्प-बुद्धि मोहि जान के मत कीजो उपहास ॥ दूषम आरे पाचवें कर्म-जोग अवतार । मोह मिट्यो नहिं पर थकी, पूरण विषय-विकार। मन वच काया वश नहीं, जिन आज्ञा परमान । सनम-आराधन कठिन, पड्यो मोहवश जान ।। सत्ता से निलिप्त मानव सत्ता का दास है, अधिकार-लिप्सा का गुलाम है । गृहस्थ-जीवन मे क्या, साधु-जीवन मे भी सत्ता मोह के महारोग से छुटकारा नहीं हो पाता है । ऊचे से ऊचे साधक भी सत्ता के प्रश्न पर पहुंच कर लडखडा जाते है। जैन धर्म की एक के बाद एक होने वाली शाखा-प्रशाखाओ के मूल मे यही सत्ता-लोलुपता और अधिकार-लिप्सा रही है। आचार्य आदि पदवियो के लिए कितना कलह और कितनी विडम्बना होती है, यह किसी से छुपा नही है। परन्तु गुरुदेव श्री रत्लचन्द्र जी म० इस दोष से मुक्त थे। सत्ता और अधिकार के मोह से सर्वथा निलिप्त थे। आपने जहा कही अपने नाम का प्रयोग किया है, केवल रतन या रत्नचन्द्र लिखा है। विक्रम संवत् १९१८ भाद्रपद शुक्ला छठ के दिन सिंघाणा मे जब आचार्य श्री तुलसीराम जी का स्वर्गवास हुमा, तब समग्र सघ ने एक मत होकर आपसे आचार्य पद ग्रहण करने की प्रार्थना की। परन्तु आपने
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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