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________________ निर्देशक-प्रवचन युग-पुरुष वह होता है, जो अपने युग को जीवन का नया सदेश सुनाता है। उनके विचार मे युग का विचार मुखर होता है, उनकी वाणी मे युग बोलता है, और उसकी क्रिया-शक्ति से युग को नयी चेतना, नयी स्फूर्ति और नयी प्रेरणा मिलती है। वह अपने युग की जन-चेतना का साधिकार प्रतिनिधित्व करता है । वह अपने युग की जनता को सही दिशा की ओर प्रयाण करने की प्रेरणा ही नहीं देता, राह भूले राही को आगाह भी करता है, कि तेरा रास्ता वह नहीं है, जिस पर तू आँखे बन्द करके चला जा रहा है, यह रास्ता तुझे तेरी मजिल पर न ले जा कर इधर उधर भटका देगा । जरा संभल और विवेक के विमल आलोक मे अपने गन्तव्य पथ का निश्चय कर ले । यह क्या बात है कि आज इधर चल पड़ा और कल उधर मुड पडा । इस प्रकार भटकने से क्या कभी तू अपनी मजिल पर पहुंचने की आशा रखता है ना भाई | अपनी इस भूल भरी आदत को छोड दे । सही राह पर और सही दिशा मे चलने का ही नहीं, आगे बढ़ने का अपने दिल और दिमाग से मजबूत इरादा करले । देख, यदि तू अपने मन की दुविधा को दूर न कर सके, तो आ, मेरे कदमो पर अपने कदम धरता आ । तू अपना मन, अपना बन अपनी काया मुझे अर्पित कर दे, 'मामेक शरणं व्रज ।" फिर तुझे कोई खतरा नहीं। युग-पुरुष गुरुदेव ने अपने युग की भोली जनता को इस प्रकार श्रद्धा, भक्ति और अर्पणा का पाठ पढाया था। बिना श्रद्धा और भक्ति के जीवन सत्य, सुन्दर और शिव नही बन सकता । बाल की खाल निकालने वाले तर्कशील तार्किक लोग कभी कुछ पा नहीं सकते । प्याज का छिलका उतार कर अन्दर से कुछ पाने की आशा रखने वालो के हाथ मे आखिर शून्य-बिन्दु ही शेष रहता है । गुरु के वचनो पर आस्था, श्रद्धा और भक्ति रखने वालो के हाथ मे ही जीवन का दिव्य अमृत फल रहता है। गुरुदेव स्वय अमृत-भोजी थे। अतः उन्होने अपने भक्तो को भी उन्मुक्त भाव से अमृत दान किया था। वह अमृत था, जिसे उस युग-पुरुष ने अपने युग की जन-चेतना को खुलकर बाटा-सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचार । वह युग-पुरुष आज नही रहा, परन्तु उसका दिव्य उपदेश आज भी अमर है और युग-युग तक अमर रहेगा । जो अमृत-भोजी है, क्या वह कभी मरा है, कभी मर सकता है । मैं तो यह विश्वास करता हूँ कि वह युग पुरुष आज से सौ-साल पहले भी था, आज भी है और अनन्त भविष्य में भी रहेगा। क्योकि जो अमर है, वह कभी मर नहीं सकता। मैं उस अमृत-योगी दिव्य-पुरुष के चरणो मे, उस अमर-पुरुष के अमर-दिव्यगुणो मे, अपनी अमर आस्था अर्पित करता हूँ-मन से, वचन से, और तन से उस युग-पुरुष के दिव्यगुणो को नमस्कार।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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