SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ मममा लिया, किन्तु माता को जरा देर में मममा पाया । माता और पिता दोनो की ओर से उसे दीक्षा लेने की अनुमति मिल गई। सागार से प्रनगार तपस्वी हरजीमलजी महाराज की सेवा मे एक वर्ष तक साधु-जीवन की शिक्षा ग्रहण की। आचार गास्त्र का अध्ययन किया । माधक-जीवन के योग्य मुख्य वातो का अभ्यास किया । जव गुरु ने हर प्रकार से आपके जीवन की परीक्षा कर ली और आप को हर तरह से दीक्षा के योग्य पाया, तो विक्रम संवत् १८६२ मे, भाद्रपद शुक्ला ६ शुक्रवार के दिन, आप को दीमा दे दी । अब रल चन्द्र गृहस्थ से रत्नचन्द्र मुनि हो गए । दीक्षा के अवसर पर आपके नारलौल नगर मे माता और पिता तथा अन्य परिजन भी वहां उपस्थित थे । रत्न परम प्रसन्न था। संयम और तप दीक्षा ग्रहण करते ही रत्न मुनि ने सयम और तप की माधना प्रारम्भ कर दी । सयमी जीवन में वे सदा जागृत रहते थे। जरा-जरा सी बातो में भी अपने सयम का ध्यान रखते थे। विवेक से चलते, विवेक से उठते, विवेक से बैठते, विवेक से वोलते, किंबहुना, अपना हर काम विवेक से करते थे । मयम के माय तप की भी साधना प्रारम्भ की । क्योकि अपने तपस्वी गुरु से उन्हें तप की विशेष प्रेरणा मिली यो । तप और सयम के साथ-साथ अपने गुरु की सेवा भी उनके जीवन का लक्ष्य बन गया । तप, सयम और सेवा–ये तीनो साधु-जीवन के विगेप गुण हैं, जिनकी साधना उन्होंने निरन्तर की। विशेष अध्ययन अपने दीक्षा-गुर से अध्ययन करने के बाद उन्हें विशेप अध्ययन करने की भावना जगी । गुरु ने भी अपने मिप्य की तीन-जिनामा को देख कर अपनी ही मम्प्रदाय के तत्कालीन विद्वान् और प्रखर पण्डित श्रद्धेय लक्ष्मीचन्द्र जी महाराज मे रत्नमुनि को विशेप स्प में अध्ययन कराने की प्रार्थना की, जिमको उन्होंने महर्ष स्वीकार कर लिया । योग्य गिप्य को सुयोग्य गुरु मिल गया। रन्नमुनि जी ने अपनी पैनी बुद्धि से, प्रखर प्रतिभा से और तर्कपूर्ण मेवा-गक्ति से अल्पकाल मे ही अपने कठोर परिश्रम से सस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश जैसी प्राचीन भापाओ को सीख लिया । आगम, दर्शन साहित्य और ज्योतिप आदि शास्त्र का विगेप अध्ययन कर लिया। तत्कालीन आचार्य श्री नूणकरण जी महाराज मे भी आपन आगम साहित्य का गभीर तलस्पर्णी अध्ययन करके सैद्धान्तिक ज्ञान क्षेत्र में प्रौढता प्राप्त की। धर्म-प्रचार तप, सयम, सेवा और विशेष अध्ययन से परिपक्व होकर, अपने गुरु की आज्ञा लेकर रलमुनि जी ने धर्म-प्रचार का कार्य प्रारम्भ किया। जन-जीवन में नैतिक जागरण, धर्म-भावना और सस्कृति का खुव
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy