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________________ आचार्य हेमचन्द्र और सम्राट् कुमारपाल चुका था। माम और मदिरा का त्याग भी वह तभी कर चुका था, जब खभात में प्रथम बार उसने आचार्य के दर्शन किए थे। अपने राज्य में अहिमा का प्रमार करने से पूर्व वह हिमा को अपने जीवन व्यवहार में उतार चुका था। अनेकान्त की शिक्षा भी उसे आचार्य से मिली थी। अत वह प्रत्येक धर्म के प्रति समभाव रखता था । किमी भी धर्म का अनादर वह नहीं करता था। स्वय वह जैन आचार और जैन विचार का पालन करता था। अपने समस्त राज्य में उसने अमारी की घोपणा कर दी थी। जो व्यक्ति किमी की व्यर्थ में हिमा करता था, उसे मम्राट् कठोर दण्ड देता था । वलि के लिए कुमारपाल ने कठोर प्रतिपेध कर दिया था। कुमारपाल का ममरत माम्राज्य अहिसा और अनेकान्त के सिद्धान्त पर ही चलता था । उसने म्वय अपने व्यक्तिगत जीवन में अपरिग्रह के सिद्धान्त का भी कठोरता से पालन किया था। कुमारपाल का गायन अहिसा, धर्म और अनेकान्त की मस्कृति पर अवलम्वित था। एक वार शव लोगो ने आचार्थ हेमचन्द्र की कुमारपाल से यह शिकायत की यह समभाव की और समन्वय की कोरी वाते करते है। यदि यह मच्चे समभावी हो, तो मोमनाथ के मन्दिर में जाकर इन्हें वहाँ नमस्कार करना चाहिए । यह बात आचार्य के कानो तक भी जा पहुंची । वे सोमनाथ के मन्दिर मे गए और हजारो लोगो के मामने तथा कुमारपाल के मामने शिव की इस प्रकार स्तुति की जिमके राग और द्वेप क्षय हो गए है, वही वस्तुत महादेव है, उसे मैं नमस्कार करता है। भले ही वह किसी भी पन्य मे हो, किसी भी परम्परा में हो, जिसने राग और द्वेप पर विजय प्राप्त कर लिया, वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, गिव हो, बुद्ध हो अथवा जिन हो, उसे नमस्कार करता हूँ।" आचार्य हेमचन्द्र के इस समभाव को, इस ममन्वय बुद्धि को और इस अनेकान्त की साधना को देख कर वहाँ उपस्थित सभी लोग दग रह गए । सभी आचार्य के समभाव की प्रशसा करने लगे। कुमारपाल के मन में अपार हप था ही। आचार्य हेमचन्द्र अपने युग के प्रकाण्ड पण्डित थे। न्याय, व्याकरण, छन्द, कोप और विविध साहित्य पर इनका अधिकार या । अत उस युग के विद्वान् लोग इनको कलि-काल सर्वज्ञ कहते थे। कुमारपाल की प्रार्थना पर उन्होने उसके प्रतिवोध के लिए "योग-शास्त्र" और "शलाका-पुरुप-चरित्र" की रचना की । ये दोनो अथ आज भी उपलब्ध हैं । बहुत ही महत्वपूर्ण प्रथ है। चौरासी वर्ष की अवस्था मे आचार्य का स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास के समाचार सुनकर कुमारपाल को बडा शोक हुआ । वह अपने आप को एक अनाथ-मा अनुभव करने लगा। परन्तु योग-शास्त्र के अभ्यास से वह शीघ्र ही शोकमुक्त हो गया। छह माम के बाद गुजरात के सम्राट् कुमारपाल भी स्वर्गवासी हो गए। गुजरात का यह पराक्रमी, वीर और शूर सम्राट् मर कर भी आज अमर है । वह एक युग-निर्माता पुरुष था।
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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