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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-अन्य ६ मंत्री १० उपेक्षा-(सुख और दुप में समस्थिति) ' एक समीक्षा २० निमित्तो और १० पारमिताओं में भावनात्मक साम्य के माथ एक मालिक अन्तर भी हैं। युद्ध, बुद्धत्व प्राप्ति के लिए कृत मकल्प होते है और मागे क्रियाएं बुद्धत्वप्राप्ति के लिए करते है। जैन परम्परा के अनुसार वीतरागता (बौद्ध पग्भिापा में अहंत पद) के लिए ही प्रयल विहित है। तीर्थकरत्व एक गरिमा पूर्ण पद है, वह काम्य नहीं हुआ करता, वह तो सहज सुकृत-सचय मे प्राप्त हो जाता है। विहित नप को किमी नश्वर काम्य के लिए अपित कर देना जैन परिभाषा में "निदान" कहलाता है।' वह विराधकता का मूचक है । भौतिक ध्येय के लिए तप करना भी अगाग्नीय है। बौद्धो में बुद्धत्व इसलिए काम्य माना गया है, कि वहाँ व्यक्ति अपनी भव-मुमुक्षा को गौण करता है और विश्वमुक्ति के लिए इच्छुक होता है । तात्पर्य होता है-जैनो ने तीर्थकरत्व को उपाधि विशेप से जोटा है और बौद्धो न बुद्धत्व को केवल परोपकारता से। यही अपेक्षा-भेद दोनो परम्पगओ के मालिक अन्तर का कारण वना है । परोपकारता जैन-धर्म में भी आकाक्षणीय नहीं है और पक्षकाक्षा बौद्ध-धर्म में भी उपादेय नहीं है। इस प्रकार उक्त अन्तर केवल मापेक्ष वचन-विन्यास ही ठहरता है। बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० १८१-१८२ २ दशाभुत स्कन्ध, निदान प्रकरण ३ चव्विहा खुल तव समाही भवइ । तनहा-नो इह लोगळ्याए तवमहिठिज्जा, नो पर-लोगठ्यिाए तव महिद्विज्जा, नो कित्तिवण्ण-सद्दसिलोगट्टयाए तवमहिठिठज्जा, नन्नत्थ निज्जरठ्याए तवमहिटिज्जा। दशवकालिक सूत्र ६४ ३६४
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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