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रासा-साहित्य के विकास में
जैन विद्वानों का योगदान
डा. कस्तूरचंद कासलीवाल एम० ए० पी-एच० डी० ++++++++++++++++++++++++ + +++++
रास शब्द की व्युत्पत्ति एव स्वरूप को लेकर हिन्दी के विभिन्न विद्वानो द्वारा अब तक पर्याप्त चर्चा हो चुकी है । रास के रासक, रासो, रासो, रासउ, रासु आदि विभिन्न नाम मिलते है । ९-१० वी शताब्दी के अपभ्रश के महाकवि स्वयम्भू ने अपने छन्द ग्रन्थ मे रास का लक्षण करते हुए उसे जन-मन अभिराम वतलाया है और कहा कि वह धत्ता, छडुणिया पद्धडिया तथा ऐसे ही अन्य सुन्दर छन्दो से युक्त रासाबन्ध काव्य जन मन अभिराम होता है । महाकवि ने २१ मात्रा वाले रासा छन्द का लक्षण भी दिया है। स्वयम्भू के उक्त लक्षण से पता चलता है कि उस समय रासा कान्य अत्यधिक जन प्रिय होते थे और कविजन इन्हे छन्दो बद्ध किया करते थे । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने वीसलदेवरासो में प्रयुक्त रसायण शब्द से रासो शब्द की उत्पत्ति मानी है। श्री के० का० शास्त्री के मतानुसार रास या रासक मूलत नृत्य के साथ गायी जाने वाली रचना विशेष है। ' पत्ता-णि आहि पद्धडि आहि सुअण्णरूएहि ।
रासाबंधो कन्वे जण-मण अहिरामो होइ । ८-४६ । एकवीसमत्ता णिहणउ उछाम गिरू । घउबसाइ विस्सामहो भगण वि रइए थिरू ॥
रासा बघु समिद्ध एउ अहिराम अरु । ८-५२ । २ हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ ३२ (स० २००३) ' आपणा कविओ भाग १ पृष्ठ १४३-१५२ तथा ४१६-४३२