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हिन्दी का भक्ति-साहित्य
डा० श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी
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जिस समय हिन्दी का भक्ति-साहित्य बनना शुरू हुआ था, वह समय एक युग-सधि का काल था। प्रथम बार भारतीय समाज को एक ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड रहा था, जो उसकी जानी हुई नही थी। अब तक वर्णाश्रम-व्यवस्था का कोई प्रतिद्वन्द्वी नही था। आचार-भ्रष्ट व्यक्ति समाज से अलग कर दिए जाते थे। और वे एक नई जाति की रचना कर लिया करते थे। इस प्रकार यद्यपि सैकडो जातियों और उपजातियाँ बनती जा रही थी, तथापि वर्णाश्रम-व्यवस्था किसी न किसी प्रकार चलती ही जा रही थी । अब सामने एक सुसगठित समाज था, जो प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक जाति को अपने अन्दर समान आसन देने की प्रतिज्ञा कर चुका था। एक बार कोई भी व्यक्ति उसके विशेष धर्ममत को यदि स्वीकार करले, तो इस्लाम समस्त भेद-भाव को भूल जाता था। वह राजा से रक और ब्राह्मण से चाण्डाल तक सबको धर्मोपासना का समान अधिकार देने को राजी था। समाज का दण्डित व्यक्ति अब असहाय न था । इच्छा करते ही वह एक सुसगठित समाज का सहारा पा सकता था। ऐसे ही समय में दक्षिण से भक्ति का आगमन हुआ, जो "बिजली की चमक के समान" विशाल देश के इस कोने से उस कोने तक फैल गई। इसने दो रूपो मे अपने-आपको प्रकाशित किया। यही वे दो धाराएँ है, जिन्हे निर्गुणधारा और सगुणधारा नाम दे दिया गया है । इन दोनो साधनाओ ने दो पूर्ववर्ती धर्म-मतो को केन्द्र बनाकर ही अपने-आपको प्रकट किया । सगुण उपासना ने पौराणिक अवतारो को केन्द्र बनाया और निर्गुण उपासना ने योगियो अर्थात् नाथपथी साधको के निर्गुण परब्रह्म को। पहली साधना ने हिन्दू जाति की बाह्याचार की शुष्कता को आन्तरिक प्रेम से सीचकर
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