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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ ६-१०. आर्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती
आर्य महागिरि और सुहस्ती अपने युग के परम प्रभावक युग-पुरुप थे। आर्य स्थूलभद्र जी के शिष्य रत्न और पट्टधर । वाल्यकाल मे स्थूलभद्र जी की वहन गक्षा साध्वी द्वारा मूलत प्रतिबुद्ध हुए थे। दोनो की आयु मे लगभग ४५ वर्ष जितना अन्तर पडता है। दोनो ही आचार्य सर्वश्रेष्ठ, मेधावी, बहुश्रुत, त्यागी और सयमी थे । अत्यन्त निष्ठा के साथ ११ अग और १० पूर्व तक का कण्ठस्थ अध्ययन दोनो ही आचार्यों ने किया था।
आयं महागिरि साधनापथ के उग्र यात्री थे। आपने जम्बू स्वामी के युग से विच्छिन्न जिनकल्प जैसी कठोर साधना अपनाई और आर्य सुहस्ती को संघ का नेतृत्व सौपकर एकान्त वनवासी बन गए । आर्य सुहस्ती स्थविरकल्पी रहे और विशेपत नगर एव ग्राम वसतियो मे ही उनका निवास रहा।
एक बार दोनो आचार्य कौशाम्बी मे गए और वहाँ दुष्काल से पीडित एक द्रमक (भिखारी) को दीक्षा दी । कथाकार कहते है कि यही द्रमक कुणालपुत्र सप्रति हुआ। अवन्ती (उज्जयिनी) नगरी मे आर्य सुहस्ती को देखकर युवराज सप्रति को जातिस्मरण हुआ और उनका उपदेश श्रवण कर जैनधर्मावलम्वी वना । सम्प्रति वडा ही दयालु और भद्र प्रकृति का नरेश था। दरिद्र जनता के हितार्थ ७०० दानशालाएं खोली और मुक्त मन से दीन दुखी निराधार लोगो के लिए राज-कोप अर्पण कर दिया। सम्प्रति, जैन धर्म का द्वितीय अशोक है । वृहत्कल्प सूत्र के भाष्य मे लिखा है कि सम्प्रति ने साधुवेश में अपने समर्थ अधिकारी पुरूपो को भेजकर आन्ध्र आदि सुदूर प्रदेशो में जैन धर्म का प्रचार किया।
आर्य महागिरि और सुहस्ती की शिष्य-परम्परा बहुत विशाल थी। आर्य महागिरि के शिष्यसमूह से कौशाम्बी, चन्द्र नागरी आदि अनेक शाखाएं प्रचलित हुई । आर्य महागिरि के शिष्य कौशिक गोत्रीय रोहगुप्त ने राशिक निन्हवमत का प्रचलन किया । रोगुप्त साक्षात् शिष्य नही, किन्तु परम्पराशिप्य प्रतिभासित होता है, क्योकि उसका काल वीर सवत् ५४४ निर्दिष्ट है।
समयसुन्दरगणी कल्प-सूत्र की कल्प लता-टीका में इसी को कल्पसूत्र वणित षडलूक और कौशिक विशेषणो के कारण वैशेपिक मत का प्रवर्तक भी कहते है।
आर्य महागिरि का वीर स० १४५ मे जन्म, १७५ मे दीक्षा, २१५ मे आचार्य पद और २४५ मे १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर दशार्ण (मालव-मन्दसौर प्रदेश) देश के गजेन्द्रपदतीर्थ मे स्वर्ग गमन हुआ।
आर्य सुहस्ती के भी आर्य रोहण, यशोभद्र, मेघ, कामर्षि, सुस्थित और सुप्रतिबद्ध आदि अनेक शिष्य थे, जिनसे चदिज्जिया, भद्द ज्जिया, काकदिया, विजाहरी, वभदीविया आदि अनेक गण और कुलो
'बृहत्कल्पभाष्य १, ५० गा० ३२७५ से ३२८६
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