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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ कोशा का सगीत-कला को चिर-साधना से मजा-निखरा गान और नृत्य, ऐसा कि एक बार तो जड पत्थर भी द्रवित हो जाए-ठुनक जाए । परन्तु स्थूल भद्र पद्मासन लगाए ध्यान मुद्रा मे अन्तर्लीन । तन, मन दोनो ही अचल, अकम्प | आत्मदर्शन के अतिरिक्त "सर्व शून्य-शून्य क्षणिक-क्षणिकम् ।" स्वस्प चिन्तन की अन्तर्वीणा के हजार-हजार, लाख-लाख, कोटि-कोटि तार झकृत हैं । अन्तर मे चल रहे संगीत के महास्वर मे आखिरकार बाहर के सगीत का क्षीण-कण्ठ डूब गया, निर्माल्य हो गया। कोशा आत्म-प्रतिबोध की आध्यात्मिक जागरण की भूमिका मे, स्थूलभद्र के आदेश का जादू काम कर गया । कोशा जैसी वेश्या भी भगवान महावीर के चतुर्विध सघ मे, एक श्राविका के रूप में सम्मिलित
हो गई।
वर्षावास की मर्यादा पूर्ण होने पर मुनि लौट आए । गुरु ने प्रथम तीनो का "दुष्करकारक" तपस्वी के रूप मे स्वागत किया। परन्तु जब स्थूलभद्र लौटे, तो गुरुदेव खडे हो गए । आठ सात कदम सम्मुख गए, हर्ष गद्गद वाचा मे "दुष्कर-दुष्कर कारक" तपस्वी कहकर उनका भावभीना स्वागत किया। सिंह गुफावासी मुनि क्षुब्ध | गुरुदेव ने समझाया, ब्रह्मचर्य की दुष्करता का सजीव चित्र खीचकर प्रतिबोध दिया। परन्तु आवेश, आवेश है। यह कभी कभी निरकुश पागल हाथी हो जाता है। दूसरे वर्ष चातुर्मास करने के लिए सिंह गुफावासी, कोशा-सिहनी की गुफा मे । परीक्षा के लिए प्रयुक्त नृत्य गान को एक ही चोट से घायल, व्रत भग के लिए प्रस्तुत । कोशा ने धर्म रक्षा के लिए मार्ग बदला । नेपाल नरेश के यहा से रत्न कम्बल की माग । भान भूला हुमा साधु चातुर्मास मे नेपाल पहुंचता है। रत्न कम्बल लाता है । मार्ग मे चोरो द्वारा पकडा जाता है-पिटता है, बडी कठिनाई से छुटकारा पाकर पाटली पुत्र वापस लौटता है । कोशा को रत्न कम्बल देता है, परन्तु कोशा रल कम्बल लेकर गन्दे पानी की नाली मे फेंक देती है । "यह क्या" ? साधु क्रोध की भाषा मे गर्जता है-"कठोर परिश्रम से प्राप्त बहुमूल्य रत्न कम्वल को कही यो नाली मे फैका जाता है ?" कोशा का एक ही छोटा सा उत्तर है-"क्या आपके सयम रूपी अनमोल चिन्तामणि रत्न से भी यह कपडे का चिथडा रत्न कम्बल अधिक मूल्यवान है ? कामवासना की क्षणिक तृप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का भग, क्या यह अनमोल ब्रह्मचर्य रत्न को गन्दी नाली मे डालना नही है ?" कोशा का यह उपक्रम और उपसहार का काम कर गया। सिंह गुफावासी सिंह से शृगाल बनते-बनते रह गए । गुरुचरणो मे पहुँचकर आत्मशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त ग्रहण और फिर वही कठोर साधना, तप एव त्याग ।
स्थूलभद्र के जीवन-प्रासाद का यह कक्ष बहुत ही सुन्दर है, मनोहारी है । ससार-वासना ज्यो ही किसी साधक के हृदय को गुदगुदाए, त्यो ही यदि जागृत साधक काम विजेता स्थूलभद्र को स्मरण कर लेता है, तो अवश्य ही वह काम-विजेता हो सकता है। प्राकृत, सस्कृत, अपभ्रश और अन्य राष्ट्र-भाषामो मे स्थूलभद्र का जीवन वृत्त शत-शत धाराओ से प्रवहमान होता आया है, महोपाध्याय धर्मसागर गणी द्वारा उद्धृत शब्दावली मे, हम भी, श्री स्थूलभद्र के चरणकमलो मे नतमस्तक होते है
श्रीनेमितोऽपि शकटालसुत विचार्य,
मन्यामहे वयममु भटमेकमेव ।