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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ हरिपेण सूरी (विक्रम म० ६८९) अपने बृहत्कथाकोष' मे भद्रबाहु का स्वर्गवास, उज्जयिनी के पार्श्ववर्ती प्रदेश मे बताते है, दक्षिण मे नही । दिगम्बर ब्रह्मचारी नेमिदत्त जी भी उज्जायनी मे वटवृक्ष के नीचे भद्रबाहु के स्वर्गवासी होने का उल्लेख करते है। श्रुत केवली भद्रबाहु का स्वर्गवास श्वेताम्बर वीर स० १७० मानते है, और दिगम्बर १६२ मे, जब कि दिगबर आचार्य देवसेन वीर स०६०६ मे दिगबर श्वेताम्बर मतभेद का होना बताते है, और श्वेताम्बर वीर म०६०९ मे । श्वेताम्बर दिगबर मतभेद की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे केवल तीन वर्ष का ही अन्तर है, दोनो की मान्यताओ मे उक्त सदर्भ से स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम भद्रबाहु दक्षिण मे नही गए, और न उनके युग मे कोई उल्लेखनीय श्वेताम्बर दिगबर मतभेद उत्पन्न हुआ। अस्तु श्रवण वेलगोला (चन्द्रगिरि) का भद्रबाहु सम्बन्धी शिलालेख, जो उनके दक्षिण आने की चर्चा करता है, प्रथम भद्रबाहु का न होकर द्वितीय भद्रबाहु का होना चाहिए । जैन सिद्धान्त भास्कर, किरण १ पृ० २५ मे भी दक्षिणापथ के यात्री भद्रबाहु को द्वितीय भद्रबाहु ही माना है, प्रथम नही । द्वितीय भद्रबाहु के पश्चात् ही श्वेताम्बर दिगबर मतभेद होने की मान्यता अधिक तर्क-सगत है।
भद्रबाहु स्वामी ने अपने जीवन के ४५ वे वर्ष मे आर्हती दीक्षा ग्रहण की। ६२ वे वर्ष मे युग प्रधान आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए । भगवान् महावीर के १७० वर्ष के पश्चात् ७६ वर्ष के आयु मे स्वर्गवासी हुए।
भद्रबाहु जैन परपरा के क्षितिज पर सर्वत प्रकाशमान सूर्य हैं। क्या श्वेताम्बर और क्या दिगवर, उत्तरकालीन सभी आचार्य उनके श्री चरणो मे अखड भाव भक्ति के साथ श्रद्धा सुमन अर्पित करते आए है । महाकाल की कालिमा मे कभी न धूमिल होने वाली अद्भुत ज्ञान प्रभा, तत्कालीन दर्शनो का तलस्पर्शी परिशीलन, अनेकविध देश विदेश का मौलिक परिज्ञान, इतिहास का यथार्थवादी स्पष्ट दृष्टिकोण, जिन वाणी के प्रति अक्षुण्ण निष्ठा, आगम साहित्य के गूढार्थो की सरल एव गभीर व्याख्या-पद्धति, अनेकान्तवाद का तर्क प्रधान आगमलक्षी अनुचिन्तन, आचार-सहिता के उत्सर्ग और अपवाद मार्गों का युक्ति सगत विश्लेषण-उनका सब कुछ ऐसा निर्मल, उज्जवल और समुज्ज्वल है कि प्रतिभामूर्ति भद्रवाहु के चरणारविन्द मे हम सब का चित्त चचरीक आज भी कोटि-कोटि वन्दना के साथ सहसा श्रद्धावनत हो जाता है । आगम साहित्य के मर्मज्ञ व्याख्याता आचार्य मलयगिरि के शब्दो मे, समग्र जैन जगत् युगयुग तक उन्हे श्रद्धाञ्जलि अर्पण करता रहेगा। श्रीकल्पसूत्रममृत विबुधोपयोग
योग्य जरामरणदारुण-दु खहारि । येनोवृत मतिमता मथितात् श्रुताब्वे... श्रीभद्रबाहु-गुरवे प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥
-पिण्डनियुक्ति टीका
'कथा १३१, श्लो० ४३-१४ 'आराधना कथा-कोष, कथा ६१, श्लो० २६-२७