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जैन-दर्शन में सप्तमंगीवाद
उपाध्याय अमरमुनि
साख्य दर्शन का चरम विकास प्रकृति पुरुप-बाद मे हुआ, वेदान्त दर्शन का चिअद्वैत मे, वौद्ध दर्शन का विज्ञानवाद मे और जैन दर्शन का अनेकान्त एव स्याद्वाद मे । स्याद्वाद जैन दर्शन के विकास को चरम-रेखा है । इसको समझने के पूर्व प्रमाण एव नय को समझना आवश्यक है, और प्रमाण एव नय को समझने के लिए सप्तभगी का समझना भी आवश्यक ही नही, परमआवश्यक है। जहा वस्तुगत अनेकान्त के परिवोध के लिए प्रमाण और नय है, वहा तत्प्रतिपादक बचन-पद्धति के परिज्ञान के लिए सप्त भंगी है । यहाँ पर मुख्य रूप मे सप्त भगीवाद का विश्लेपण ही अभीष्ट है । अत प्रमाण और नय की स्वतन्त्र परिचर्चा मे न जाकर सप्त भगी की ही विवेचना करेंगे।
सप्तभंगी
प्रश्न उठता है, कि सप्तभगी क्या है ? उसका प्रयोजन क्या है ? उसका उपयोग क्या है ? विश्व की प्रत्येक वस्तु के स्वरूप-कथन मे सात प्रकार के वचनो का प्रयोग किया जा सकता है, इसी को सप्तभगी कहते है।
' सप्तभिः प्रकार वचन-विन्यास : सप्तभडीति गीयते
-स्यावाद मंजरी, का० २३ दीका