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________________ गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-ग्रन्थ जाकर निर्मल सयम-साधना की, आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि की, वैशाखशुक्ला १० को बिहार राज्यान्तर्गत ऋजुवालुका, आज की बराकर, नदी के तट पर, शाल वृक्ष के नीचे ध्यानमुद्रा मे कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। भगवान् महावीर की तप साधना के सुनहले चित्र आचाराग और कल्प-सूत्र मे अकित है। बौद्ध साहित्य में भी उन्हे दीर्घ तपस्वी कहा है। आवश्यक-चूणि, महावीर चरित्र आदि प्राकृत संस्कृत ग्रन्थो मे उनके जीवन की प्रेरणादायक विविध सामग्री का अधिकाश भाग आज भी सुरक्षित है। भगवान महावीर के समय मे, भारतीय जनता, बडे ही विचित्र अघ विश्वासो से ग्रस्त थी। देवबाद अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका था। यज्ञ, याग आदि के विधिविधानो मे पशुहत्या, यहाँ तक कि नर हत्या भी प्रचुर मात्रा में होती थी। वर्ण-व्यवस्था की पवित्रता के नाम पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की छाया तक को अस्पृश्य मानकर चल रहा था । स्त्री जाति केवल भोग की वस्तु बन कर रह गई थी, उसे सामाजिक जीवन में कुछ भी अधिकार प्राप्त नही था। तापसो की परपरा भी विकृत हो चुकी थी। तापस पचाग्नि तप करते, वृक्ष की शाखाओ से अधोमुख उल्टे लटके रहते, हाथो को ऊँचा करके घूमते, कदमूल, शैवाल और सूखी घास खाते, भयकर सर्दी मे सारी रात जल में पड़े रहते । औपपातिक आदि जैन सूत्रो एव बौद्ध साहित्य मे इनके अनेकविध कठोर क्रियाकाण्डो का उल्लेख है । भौतिक वादी घोर नास्तिको का भी कुछ कम प्रभाव नहीं था। भगवान् महावीर ने कैवल्य प्राप्त कर उक्त परपराओ की विवेक-हीन जड मान्यताओ पर मूलघाती प्रहार किया। जिज्ञासु जनता को धर्म के मूलसत्य का दर्शन कराया। अहिंसा मूलक जीवन-क्रान्ति का सन्देश एक छोर से दूसरे छोर तक जन-मानस मे विद्युत्गति से प्रकाशमान होता चला गया। भगवान् महावीर ने इस प्रकार सामाजिक और धार्मिक उभयमुखी क्रान्ति की । महाश्रमण केवल जैनेतर परपराओ मे ही सुधार का शखनाद फूंक कर नही रह गए । अपितु उन्होने पार्व-परपरा से समागत जैन श्रमणाचार को भी देशकालानुसार कसा । पार्श्वनाथ परपरा मे वस्त्र, प्रतिक्रमण, एक स्थानीयवास आदि के कुछ नियम अधिक कसे हुए नही थे। अत उक्त नियम धीरे-धीरे शिथिल पडते गए। भगवान महावीर ने पार्श्वनाथ परपरा को भी कुछ कसकर और कुछ समन्वय कर, अपने सघ मे मिला लिया। भगवान् महावीर तर्क-प्रधान व्याख्याता थे। उनकी तर्क-पद्धति इतनी प्रभावोत्पादक थी कि मध्यम पावापुरी के महासेनवन वाले प्रथम प्रवचन मे ही इन्द्रभूति गौतम आदि भारतवर्ष के मूर्धन्य चार हजार चार सौ यज्ञ पक्षपाती ब्राह्मण विद्वानो ने, जैन श्रमणत्व की दीक्षा ग्रहण कर ली। उनमे से इन्द्र भूति गौतम आदि ११ विद्वान मुख्य थे, जिनके अधिकार मे सघ का शासन सौपा गया, फलस्वरूप वे गणघर के नाम से प्रसिद्ध हुए। तीर्थ का अर्थ है सरोवर और नदी आदि जलधाराओ का वह घाट, जहाँ सर्व साधारण सकुशल उनमे अवगाहन या उन्हें पार कर सकते हैं। साधु, साध्वी, श्रावक और थाविका का धर्मतीर्थ भी ऐसा ही है। उक्त चतुर्विध धर्मसाधना से साधक धर्म रूपी सरोवर मे अवगाहन कर सकता है, या उक्त घाटो से ससार नदी को सकुशल पार कर सकता है । भगवान् चतुर्विध तीर्थ रूप धर्म सघ की स्थापना करने के
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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