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________________ गुरुदेव श्री रल मुनि स्मृति-प्रत्य ६ सस्तारक गुणरल ७ गच्छाचार विजय विमल ८ गणि-विद्या ६ देवेन्द्र-स्तव १०. मरण-समाधि यहां पर उपलब्ध टीकाओ का सक्षिप्त परिचय दिया गया है। कुछ पर टीकाएं उपलब्ध नहीं है। कुछ पर विस्तृत टीकाएँ है, कुछ पर सक्षिप्त टीकाएँ है। प्राचीन भण्डारो के अनुसधान से कुछ टीकाएँ अव प्रकाश में आ रही है। टव्बा-परिचय टीका-युग की परिसमाप्ति पर टब्बा-युग प्रारम्भ होता है। टब्बा भी एक प्रकार से आगमो पर सक्षिप्त टीका ही है । परन्तु यह सस्कृत-युग न होकर अपभ्रश-युग है । टब्बा मे गुजराती और राजस्थानी भाषा का मिश्रण होता है। सम्भवत इसका कारण यह हो, कि टब्बाकार सन्त प्राय गुजरात और राजस्थान मे ही अधिक विचरण करते थे। टब्वाकारो मे पालचन्द्र और धर्मसिंह जी का नाम विशेप रूप से उल्लेखनीय है। इनका समय अठारहवी शती माना गया है। टब्बा बहुत ही सक्षिप्त शैली मे लिखे गए है। अपभ्रंश-काल संस्कृत भापा केवल पण्डितो की भाषा बन चुकी थी। प्राकृत और संस्कृत मे से ही अपभ्रश भापा की उत्पत्ति हुई। एक युग ऐसा माया, जिसमे जैन सन्त प्राकृत और सस्कृत दोनो को भूल कर अपनी कृतियो की रचना अपभ्रश में ही करने लगे थे। जब नियुक्ति, भाष्य, चूणि और टीकाओ को समझने वाले विरले रह गए, अधिकतर लोग अपने व्यवहार में अपभ्रश का ही प्रयोग करते थे। लोकरुचि को देखकर जैन आचार्यों ने अपनी साहित्य रचना का माध्यम अपभ्रश को ही बना लिया। कथा, कहानी, जीवन चरित्र और अध्यात्म ग्रन्थ अपभ्रश में लिखे जाने लगे। क्योकि जैन आचार्यों ने सदा से ही जन बोली का आदर किया है। जिस भाषा मे लोग समझे, उसी भापा मे वे अपनी कृतियां लिखने बैठ जाते थे। आगे चलकर आगमो की व्याख्या भी उन्होने अपभ्रश मे प्रारम्भ कर दी । परन्तु शैली का विस्तार वे नही कर सके। सक्षिप्त बोली मे और जन वोली मे जो आगमो की व्याख्या की गई, उसी को टब्बा कहा गया। टब्बाकार टव्वाकार कौन-कौन थे? इस विषय में अधिक ज्ञात अभी तक नहीं हो सका है। परन्तु टब्बा ८६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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