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कुणाला नगरी के समीप बहने वाली एरावती नदी में जहाँ एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखकर जाना-आना शक्य हो तो वहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को मिक्षाचर्या के लिए एक कोश सहित एक योजन क्षेत्र में चारों ओर जानाआना कल्पता है |
आयारदसा
यदि उक्त प्रकार से जाना-आना शक्य न हो तो निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को मिक्षाचर्या के लिए एक कोश सहित एक योजन क्षेत्र में चारों ओर जाना आना नहीं कल्पता है ।
विशेषार्थ - यहां पर एरावती नदी का उल्लेख केवल औपचारिक है, अतः जहाँ कहीं कोई भी नदी अल्प जल वाली एवं निरन्तर न वहने वाली हो तो उस नदी में एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखकर वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ भी मिक्षाचर्या के लिए भवग्रह क्षेत्र में जा, आ सकते हैं ।
जिस क्षेत्र में वर्षावास स्थित निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ हैं उस क्षेत्र की एक या अनेक दिशाओं में जल से भरी हुई नदियाँ सदा वहती हों तो उन-उन दिशाओं में अवग्रह क्षेत्र एक कोश सहित एक योजन का नहीं माना गया है ।
परस्पराहार- दानरूपा चतुर्थी समाचारी
सूत्र १२
वासावासं पज्जोसवियाणं अत्येगइयाणं एवं वुत्तन्वं भवइ - दावे भंते ! एवं से कप्पइ दावित्तए,
नो से कप्पइ पडिगाहित्तए १८ / १२
चौथी परस्पर आहार-दान समाचारी
वर्षावास रहे हुए साधुओं में से किसी साधु को आचार्य इस प्रकार कहे कि
अदन्त ! आज तुम अमुक ग्लान साधु के लिए आहार लाकर दो ।
ऐसा कहने पर ग्लान साधु के लिए आहार लाकर देना उसे कल्पता है, किन्तु स्वयं को आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है ।
सूत्र १३
वासावासं पज्जोसवियाणं अत्येगइयाणं एवं वृत्तपुव्वं भवइ -- पडिगाहेहि
भंते ! एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए,
नो से कप्पइ दावित्तए १८ / १३ |
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