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आयारदसा
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श्रावण और भाद्रपद मास 'प्रावृद', आश्विन और कार्तिक मास 'वर्षारात्र' कहे जाते हैं । चूर्णी और विशेष चूर्णी में भी यही कहा गया है ।
स्थानाङ्ग अ० ५, उ० २, सूत्र ४१३ की टीका में वर्षाकाल के चार मास को 'प्रावृद" कहा है तथा 'प्रावृट्' के दो भाग किए गए हैं।
प्रथम प्रावृट् पचास दिन का, द्वितीय प्रावृट् सत्तर दिन का ।
हे आयुष्मन् ! उस समय तक गृहस्थों के घर वांस आदि की चटाइयों से बांध दिये जाते हैं, खड़िया मिट्टी आदि से पोत दिये जाते हैं, घास आदि से आच्छादित कर दिए जाते हैं, गोवर आदि से लीप दिए जाते हैं, कांटों की वाड़ और कपाट आदि से सुरक्षित कर दिए जाते हैं, विषम भूमि को तोड़कर सम भूमि कर दी जाती है, कोमल चिकने पापाण खण्डों से घिस दिये जाते हैं, धूप से सुगंधित कर दिए जाते हैं, जल निकलने की नालियां साफ कर दी जाती हैं, उक्त सभी कार्य गृहस्थ अपने लिए (तव तक) कर लेते हैं । ___ इस अर्थ (कारण) से ऐसा कहा गया है कि श्रमण भगवान महावीर ने वर्षाकाल का एक मास और बीस रातें व्यतीत होने पर वर्षावास का निश्चय किया।
सूत्र २
जहा णं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कते वासावासं पज्जोसवेइ।
तहा गं गणहरा वि वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कते वासावास पज्जोसविति ।८/२॥
जिस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने वर्षाकाल का एक मास और वीस रातें व्यतीत होने पर वर्षावास का निश्चय किया,
उसी प्रकार उनके गणधरों ने भी वर्षाकाल का एक मास और बीस रातें व्यतीत होने पर वर्षावास का निश्चय किया।
सूत्र ३ __जहा गं गणहरा वासाणं सवीसइराए मासे विइयर्फते वासावासं पज्जोसविति।
तहा णं गणहरसीसा वि वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कते वासावासं पज्जोसविति । ८/३