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द्वितीय अंक। देवगुरूणं कजे चूरिजइ चक्कवट्टिसेणंपि। -
जो ण विचूरइ साहू सो अणंतसंसारिओ होदि ॥ . । अर्थात्-"देव और गुरुके कार्यके लिये चक्रवर्तीकी सेनाको भी चूर्ण कर डालना चाहिये । जो साधु समर्थ होकर भी ऐसा नहीं करता है, वह अनन्त संसारी होता है।" और हे मूर्खे! तूने क्या शासम नहीं सुना है कि, गुरुकी रक्षाके लिये सिंहोंको भी मारा है । इसके सिवाय साधुओंके भरणपोपणके विषयमें और भी कहा है कि,
नववर्गचये साधून पोपयन्ति दिने दिने ।
प्रफुल्यन्ते गृहे तेपामचिरं कल्पपादपाः॥ अर्थात्-"जो पुरुष नववर्गोंसे साधुओंका प्रतिदिन पोषण करते है, उनके घर शीघ्र ही कल्पवृक्ष फूलते है । साराश उनकी सम्पूर्ण इच्छायें पूर्ण होती है । " मधु, मांस, मद्य, मक्खन, दधि, दुग्ध, घी, इक्षुरस (सांठेका रस) और तैल इन नौ पदार्थोंको नव वर्ग कहते है।
श्राविका-अच्छा तो महाराज! मक्खन गृहण कीजिये । .[यति मान ले लेता है, और फिर किसी मिथ्यादृष्टिके यहासे भोजन एमालाकर एक स्थानमें बैठकर साता है]
शान्ति-माता! इनमें भी मुझे दया नहीं दिखती है ।
क्षमा-अरी बेटी ! दया तो बड़ी बात है, उसकी तो कथा ही छोड़, इनके पास तो सत्यका भी निर्वाह नहीं है। बड़े ही असत्यवादी है।