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________________ [४३] योगसे मुंह के आगे मुंहपत्ति रखकर यत्नापूर्वक बोलने का आगमानुसार सावित करके बतलाया है. और उन्हीं ढूंढियों के अंदर से भीखम नामक ढूंढियेने दया--दान उत्थापनकरके तेरहापंथ अलग निकाला तो उनके खंडन के लिये जैन मुनियोंने सर्व जीवोंके ऊपर अनुकंपा करके यथाशक्ति दुःख से छोडानेरूप दया करनेका और दीन हीन दुःखी प्राणियोंको यथा योग्य दान देनेका खास श्रावक का कर्तव्य है उससे परोपकारका पुण्य व जैनशासन की शोभा है ऐसा खास आगमों के प्रमाणोंसे साबित करके चतलाया है. वैसेही यदि देवद्रव्य इकट्ठा करनेका रिवाज नवीन चलाया होता तो पूर्वाचार्य उसका अवश्यही निषेध करते परंतु किसी जगह निषेध नहीं किया, किन्तु चैत्यवासी लोग देवद्रव्यका भक्षण करनेलगेथे उसकाही निषेध करके श्रावकों के लिये उचित रीति से उसकी वृद्धि करने का बतलाया है इसलिये देव द्रव्य शास्त्रोक्त और प्राचीन ही साबित होता है उसको चैत्यवासियों का नाम आगे करके अभी निषेध करना वडी भूल है. ६७ इसी तरहसे कई लोग चैत्यवासियोंने जैनशासनमें मूर्तिकी पूजा शुरू करनेका कहकर अभी श्रावकोंके लिये भी श्री जिनराजकी मूर्तिकी द्रव्य पूजा करनेका निषेध करते हैं उन्होकी बड़ी भूल है. क्योंकि देखो श्रीभगवती,जीवाभिगम, ज्ञाताजी, जंबूद्वीपपन्नत्ति, स्थानांगादि अनेक मूल आगमोंके प्रमाणोंसे यह बात अच्छी तरहसे सावित होती है कि जैसे नंदीश्वरद्वीप, मेरुपर्वत, वगैरह में और देवलोकादि शाश्वत स्थानों में शाश्वत-चैत्य [सिद्धायतन-जिन मंदिर] हैं, वैसेही भरतादि क्षेत्रोंमें नगरी आदि अशाश्वतस्थानोंमें अशाश्वत चैस [जिन मंदिर भी अनादिसे चले आते हैं और महानिशीथादि आगमोंके प्रमाणों से यह बात भी अच्छी तरहसे सावित होती है कि अनंती उत्सर्पिणी-अवसर्पिगी कालके पहलेके हुंडाअवसर्पिणी कालके पंचमआरेके पडते कालमें कई साधु लोग शिथिलाचारी होकर चैत्यवासी होगये थे वो लोग चैत्यों [जिन मंदिरों में अनेक
SR No.010764
Book TitleDev Dravya ka Shastrartha Sambandhi Patra Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherMuni Manisagar
Publication Year1922
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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