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इसलिये देवलोक से माता के गर्भमें आये तबही " समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था" अर्थात् ' श्रमण..भगवंत श्रीमहावीर स्वामी के पांच क याणक हस्तोत्तरा नक्षत्रमें हुए, ऐसा वचन खास सूत्रकारने आचारांग सूत्रमें, स्थानांग सूत्रमें और कल्पसूत्रादि आगमोंमें साफ खुलासा पूर्वक नैगम नयकी अपेक्षा से मूल पाठमें कथन किया है. इसी तरह से देवलोक से गर्भमें आनेके समय इन्द्रमहाराज भी तीर्थंकर भगवान् जान करके ही विधिपूर्वक पूर्ण भक्ति सहित “ नमुत्थु णं " करते हैं, और जन्म समय मेरु शिखरपर स्नात्र महोत्सव तथा नंदीश्वर द्वीपमें अट्ठाई महोत्सव करते हैं. यह अधिकार कल्पसूत्रादिक में प्रसिद्ध ही है. : ..
.८ औरभी देखो, अपने लोग अभी वर्तमानमें जन्म संबंधी स्नात्र पूजाका महोत्सव करते हैं, वह तीर्थंकर भगवान् समझ करके ही करते हैं. उसमें फल, नैवेद्य या नगद रकम वगैरह जो कुछ चढाने में आती है, वह सब देवद्रव्यमें गिनी जाती है मगर जन्म संबंधी महो, त्सव गृहस्थ अवस्था की क्रिया समझ कर उस द्रव्यका उपयोग अपने नहीं करसकते और अन्य किसीकोभी उसका उपयोग नहीं करवा सकते, जिसपरभी उसका उपयोग अपन करें, अन्यसे करावें, तो देवव्यके भक्षण के दोषी बनें. तैसेही स्वम और पालना के कार्यभी गृहस्थ अवस्थाकी क्रिया समझकर उनका द्रव्य अन्य कार्योंमें लगावें तो देवद्रव्य की हानी करने के.दोषी बनें.. . ___९ औरभी देखो विचार करों, श्रेणिक राजाका जीव अभी तो प्रथम नरक में है, तीर्थकर हुआभी नहीं है, आगामी उत्सर्पिणी कालमें तीर्थकर होनेवाला है, अभी तो सिर्फ तीर्थंकर नाम गौत्र बांधा हुआ है तोभी उनकी प्रतिमा पद्मनाभ तीर्थकर रूपमें उदयपुर . वगैरहं शहरों में पूजीजाती है, उनके आगे चढाया हुआ द्रव्य देवद्रव्य गिना जाता है, मगर अन्य कार्यमें उपयोग नहीं आ सकता