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शासन को वडी भारी हानि पहुंचने का कारण हुआ, इधर उन लोगोंको बोलने का मोका मिला कि हमतो शास्त्रार्थ करने के लिये तैयार थे मगर हमारे सामने पक्षवालोंमें से कोईभी साधु खडा नहीं हो सका. इत्यादि व्यवस्थाको देखकर मैंने शास्त्रार्थ करनेका मंजूर किया और उनको पत्र भेजा, उसकी नकल नीचे मुजब है:- . . . . __
शास्त्रार्थ मंजूर... . श्रीमान्-विजय धर्मसूरिजी ! अमदाबाद, बडौदा, सुरत,.. मुंबई, रतलाम, इन्दोर, धूलिया, वगैरह आप जहां चाहे वहां देवद्रव्य संबंधी : विवादवाले विषयका शास्त्रार्थ करनेको मैं तैयार हूं. संवत्१९७८ कार्तिक । शुदी १०, मुनि-मणिसागर, ठे:-कोटेवाले शेठजीकी हवेली रतलाम.
यही लेख जैन पत्रके अंक ४४ वें में और महावीर पत्रके अंक १५ वें में छपकर प्रकट हो चुकाथा, उसके जवाब में धूलियासे श्रीमान् विजयधर्मसूरिजी की तरफसे विद्याविजयजीने जैन पत्रके अंक ४५ वें में छपवाया था कि 'तुम इन्दोर आवो तुमारे साथ शास्त्रार्थ करने को हमारी तर्फ से कोई भी साधु खडा होगा.'
. इस प्रकार से छपवाकर उन्होंने शास्त्रार्थ के लिये इन्दोर शहर पसंद किया और मेरे साथ शास्त्रार्थ करने का स्वीकार करके मेरेको मौनएकादशीके लगभग इन्दोर शास्त्रार्थके लिये बुलवाया, इसके जवाब में मैंने उनको पत्र लिखा उसकी नकल नीचे मुजब है.
. इन्दोर में शास्त्रार्थ. . . श्रीमान् विजयधर्म संरिजी-देवद्रव्यसंबंधी विवाद आपने ही उठाया है. १-२-३-४ पत्रिकाएं भी आपने ही लिखी हैं, इसलिये इस विवादके शास्त्रार्थ संबंधी कोईभी लेख आपकी सही बिना प्रमाणभूत माना जावेगा नहीं. यदि आप अन्य किसी को शास्त्रार्थ के लिये खडा करना चाहते