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________________ अनायी मुनि] मोक्षमाला बहुतसे मूर्ख दुराचारमें, अज्ञानमें, विषयमें और अनेक प्रकारके मदमें इस मानव-देहको वृथा गुमाते हैं, अमूल्य कौस्तुभको खो बैठते हैं। ये नामके मानव गिने जा सकते हैं, बाकीके तो वानररूप ही है। मौतकी पलको, निश्चयसे हम नहीं जान सकते। इस लिये जैसे बने वैसे धर्ममें त्वरासे सावधान होना चाहिये। . ५ अनाथी मुनि । (१) अनेक प्रकारकी ऋद्धिवाला मगध देशका श्रेणिक नामक राजा अश्वक्रीड़ाके लिये मंडिकुक्ष नामके वनमें निकल पड़ा। वनकी विचित्रता मनोहारिणी थी। वहाँ नाना प्रकारके वृक्ष खड़े थे, नाना प्रकारकी कोमल बेलें घटाटोप फैली हुई थीं। नाना प्रकारके पक्षी आनंदसे उनका सेवन कर रहे थे, नाना प्रकारके पक्षियोंके मधुर गान वहाँ सुनाई पड़ते थे, नाना प्रकारके फूलोंसे वह वन छाया हुआ था, नाना प्रकारके जलके झरने वहाँ बहते थे। संक्षेपमें, यह वन नंदनवन जैसा लगता था । इस वनमें एक वृक्षके नीचे महासमाधिवंत किन्तु सुकुमार और सुखोचित मुनिको उस श्रेणिकने बैठे हुए देखा । इसका रूप देखकर उस राजाको अत्यन्त आनन्द हुआ । उसके उपमारहित रूपसे विस्मित होकर वह मन ही मन उसकी प्रशंसा करने लगा। इस मुनिका कैसा अद्भुत वर्ण है ! इसका कैसा मनोहर रूप है ! इसकी कैसी अद्भुत सौम्यता है ! यह कैसी विस्मयकारक क्षमाका धारक है ! इसके अंगसे वैराग्यका कैसा उत्तम प्रकाश निकाल रहा है। इसकी निर्लोभता कैसी दीखती है ! यह संयति कैसी निर्भय नम्रता धारण किये हुए है ! यह भोगसे कैसा विरक्त है ! इस प्रकार चितवन करते करते, आनन्दित होते होते, स्तुति करते करते, धीरे धीरे चलते हुए, प्रदक्षिणा देकर उस मुनिको वंदन कर न अति समीप और न अति दूर वह श्रेणिक बैठा। बादमें दोनों हाथोंको जोड़ कर विनयसे उसने उस मुनिसे पूछा, " हे आर्य ! आप प्रशंसा करने योग्य तरुण हैं । भोगविलासके लिये आपकी वय अनुकूल है। संसारमें नाना प्रकारके सुख हैं । ऋतु ऋतुके काम-भोग, जल संबंधी विलास, तथा मनोहारिणी स्त्रियोंके मुख-वचनके मधुर श्रवण होनेपर भी इन सबका त्याग करके मुनित्वमें आप महाउधम कर रहे हैं, इसका क्या कारण है, यह मुझे अनुग्रह करके कहिये ।" राजाके ऐसे वचन सुनकर मुनिने कहा-“हे राजन् ! मैं अनाथ था। मुझे अपूर्व वस्तुका प्राप्त करानेवाला, योगक्षेमका करनेवाला, मुझपर अनुकंपा लानेवाला, करुणासे परम-सुखको देनेवाला कोई मेरा मित्र नहीं हुआ। यह कारण मेरे अनाथीपनेका था।" ६ अनाथी मुनि (२) श्रेणिक मुनिके भाषणसे स्मित हास्य करके बोला, “आप महाऋद्धिवंतका नाथ क्यों न होगा? यदि कोई आपका नाथ नहीं है तो मैं होता हूँ। हे भयत्राण ! आप भोगोंको भोगं । हे संयति ! मित्र, ज्ञातिसे दुर्लभ इस अपने मनुष्य भवको मफल करें।" अनाथीने कहा-" अरे श्रेणिक राजा! परन्तु तू तो स्वयं अनाथ है, तो मेरा नाथ क्या होगा ? निर्धन धनाढ्य कहाँसे बना सकता है ! अबुध बुद्धि-दान कहाँसे कर सकता है ! अज्ञ विद्वत्ता कहाँसे दे सकता है ! बंध्या संतान कहाँसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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