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भीमद् राजचन्द्र योगनां बीज इहां ग्रहे जिनवर शुद्ध प्रणामो रे ।
पृष्ठ लाइन भावाचारज सेवना भव उद्वेग मुठामो रे॥
[आठ योगदृष्टिनो स्वाध्याय १-८, पृ. ३३१] २७५-१७ रविके (कै) उद्यो (दो) त अस्त होत दिन दिन प्रति अंजुलीके (कै) जीवन ज्यों ( ज्यौं ) जीवन घटतुं ( तु ) है। कालके (कै ) प्रसत छिन छिन होत छीन तन
औरके ( आरेकै ) चलत मानो काठसो (सौ) कटतु है । एते परि मूरख न खोजै परमारथको ( कौं) स्वारथके (कै) हेतु भ्रम भारत कटतु (ठटतु ) है। लग्यो ( लगौ ) फिरै लौगनिसौ ( सौं ) पग्यो ( ग्यौ) परि (पर)
जोगनिसों ( सौं) विषैरस मोगनिसों (सौं) नेकु न हटतु है । [समयसारनाटक बंधद्वार २६, पृ. २४१]३२८-८ रांडी रूए मांडी रूए पण सात भरतारवाळी तो मोटुंज न उघाडे । [ लोकोक्ति ] ४५२-२१ लेवेकी ( लैबेकौं ) न रही ठो (ठौ)र त्यागिवेकी
(त्यागिवेकौं ) नाहिं (ही) और । बाकी कहा उबर्यो (यौं) जु कारजु नवीनो ( नवीनौ ) है ॥
__ [ समयसारनाटक सर्वविशुद्धिद्वार १०९, पृ. ३७७-८] २८३-१२ [ पुरिमा उज्जुजडा उ ] वंक ( वक्क ) जडा य पश्चिमा ( पच्छिमा)। [ मज्झिमा उजुपनाओ तेण धम्मो दुहाकओ ॥] [उत्तराध्ययन २३-२६] ५४-१० व्यवहारनी जाळ पांदडे पांदडे परजळी।
[ ] “१५१-३ श्रद्धाज्ञान लयां छे तो पण जो नवि जाय पमायो रे। वंध्यतरू उपम ते पामे संयम ठाण जो नायो रे॥ गायो रे गायो भले वीर जगत गुरु गायो। [ संयमश्रेणीस्तवन ४-३-पं० उत्तमविजयजी; प्रकरणरत्नाकर भाग २, पृ.७१७] ४७६-१६ सकल संसारी इन्द्रियरामी मुनि गुण आतमरामी रे।
६२९-२५ मुख्यपणे जे आतमरामी ते कहिये निष्कामी रे ॥
६८२-२) [आनंदघनचौबासी श्रेयांसनाथजिनस्तवन २, पृ. ७०] समता रमता ऊ (उ) रधता ज्ञायकता सुखभास ।
३३८-११॥ वेदकता चैतन्यता ए सब जीवविलास ॥[समयसारनाटक उत्थानिका २६, पृ. २१] ३४०-९) समज्या ते शमाई गया समजा ते समाई रहा। [ ] १७६, ६, ८ [कुसगो जह ओसबिंदुए थोवं चिट्ठइ लंबमाणए । एवं मणुयाण जीवियं ] समयं गोयम मा पमायए ॥ [ उत्तराध्ययन १०-२.] ५१-१४