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श्रीमद् राजचन्द्र
वैराग्यका बहुत सुन्दर वर्णन किया है । विनयविजयजीने शांतसुधारसको संवत् १७२३ में लिखा है। इसके अतिरिक्त आपने लोकप्रकाश, नयकर्णिका, कल्पसूत्रकी टीका, स्वोपज्ञ टीकासहित हेमलघुप्रक्रिया
आदि अनेक ग्रंथोंकी रचना की है । विनयविजयजीने श्रीपालराजाका रास भी गुजरातीमें लिखा है। यह रास गुजराती भाषाका एक सुंदर काव्यग्रंथ माना जाता है। विनयविजय इस रासको अपूर्ण ही छोड़ गये, और बादमें यशोविजयजीने इसे पूर्ण किया । राजचन्द्रजीने श्रीपालरासमेंसे कुछ पद उद्धृत किये हैं । राजचन्द्रजीने शांतसुधारसके मनन करनेका कई जगह मुमुक्षुओंको अनुरोध किया है। इसका श्रीयुत् मनसुखराम कीरतचंदद्वारा किया हुआ गुजराती विवेचन अभी डॉ० भगवानदास मनसुखरामने प्रकाशित किया है। शांतिनाथ
शांतिनाथ भगवान् जैनोंके १६ वें तीर्थकर माने जाते हैं। ये पूर्वभवमें मेघरथ राजाके जीव थे । एकबार मेघरथ पौषध लेकर बैठे हुए थे। इतनेमें उनकी गोदीमें एक कबूतर आकर गिरा। उन्होंने उस निरपराध पक्षीको आश्वासन दिया। इतनेमें वहाँ एक बाज आया, और उसने मेघरथसे अपना कबूतर वापिस माँगा । राजाने बाजको बहुत उपदेश दिया, पर वह न माना । अन्तमें मेघरथ राजा कबूतर जितना अपने शरीरका माँस देनेको तैय्यार हो गये । काँटा मँगाया गया । मेघरथ अपना माँस काट काट कर तराजू रखने लगे, परन्तु कबूतर वजनमें बढ़ता गया । यह देखकर वहाँ उपस्थित सामंत लोगोंमें हाहाकार मच गया। इतनेमें एक देव प्रगट हुआ और उसने कहा, महाराज ! मैं इन दोनों पक्षियोंमें अधिष्ठित होकर आपकी परीक्षाके लिये आया था। मेरा अपराध क्षमा करें । ये ही मेघरथ राजा आगे जाकर शांतिनाथ हुए । यह कथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितके ५ वें पर्वके ४ थे सर्गमें आती है। शांतिप्रकाश
सुना जाता है कि राजचन्द्रजीके समय स्थानकवासियोंकी ओरसे शांतिप्रकाश नामका कोई पत्र निकलता था। शालिभद्र (देखो धनाभद्र). शिखरसूरि
राजचन्द्रजीने प्रस्तुत प्रथमें पृ. ७७२ पर जैनयति शिखरसूरि आचार्यका उल्लेख किया है, जिन्होंने लगभग दो हजार वर्ष पहिले वैश्योंको क्षत्रियों के साथ मिला दिया था। परन्तु आजसे दो हजार वर्ष पहिले शिखरसूरि नामके किसी आचार्यके होनेका उल्लेख पढ़नेमें नहीं आया। हाँ, रत्नप्रभाचार्य नामके तो एक आचार्य हो गये हैं। शिक्षापत्र
. यह ग्रन्थ वैष्णवसम्प्रदायमें अत्यंत प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थमें ४१ पत्र हैं, जो हरिरायजीने अपने लघुभ्राता गोपेश्वरजीको संस्कृतमें लिखे थे । हरिरायजी वैष्णवसम्प्रदायमें बहुत अच्छे महात्मा हो गये हैं । इन्होंने अपना समस्त जीवन उपदेश और भगवत्सेवामें लगाया था। ये महात्मा सदा पैदल चलकर ही मुसाफिरी करते थे, और कभी किसी गांव या शहरके भीतर मुकाम नहीं करते