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श्रीमद राजचन्द्र
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कहा कि मुझे इतनी सामर्थ्यका अवधिज्ञान हो गया है कि मैं पाँचसौ योजनतकके रूपी पदार्थको जान सकता हूँ । गौतमस्वामीने इस बातका निषेध किया, और आनन्दको आलोचना करनेको कहा । बादमें दोनों महावीरके पास गये । गौतमको अपनी भूल मालूम हुई और उन्होंने आनन्दसे क्षमा माँगी । आनंदघन
आनंदघनजी एक महान् अध्यात्मी योगी पुरुष हो गये हैं। इनका दूसरा नाम लाभानंद था । इन्होंने हिन्दी मिश्रित गुजरातीमें चौबीस जिनभगवान्की स्तुतिरूप चौबीस स्तवनोंकी रचना की है, जो आनन्दघनचौबीसीके नामसे प्रसिद्ध है । आनन्दघनजीकी दूसरी सुन्दर रचना आनंदघनबहोत्तरी है । आनंदघनजीकी वाणी बहुत मार्मिक और अनुभवज्ञान परिपूर्ण है । इनकी रचनाओंसे मालूम होता है कि ये जैनसिद्धांत के एक बड़े अनुभवी मर्मज्ञ पंडित थे । आनन्दघनजी गच्छ मत इत्यादिका बहुत विरोध करते थे । इन्होंने षट्दर्शनोंको जिन भगवान्का अंग बताकर छहों दर्शनोंका सुन्दर समन्वय किया है । आनन्दघनजी आत्मानुभवकी मस्त दशामें विचरण किया करते थे । आनन्दघनजीका यशोविजयजीसे मिलाप भी हुआ था, इस बातको यशोविजयजीने अपनी बनाई हुई अष्टपदीमें व्यक्त किया है । राजचन्द्रजी आनन्दघनजीको बहुत सन्मानकी दृष्टिसे देखते हैं । वे उन्हें कुन्दकुन्द और हेमचन्द्राचार्यकी कोटि में लाकर रखते हैं। वे आनन्दघनजीकी हेमचन्द्राचार्यसे तुलना करते हुए लिखते हैं- " श्रीआनंदघनजीने स्वपर - हितबुद्धि से लोकोपकार-प्रवृत्ति आरंभ की। उन्होंने इस मुख्य प्रवृत्तिमें आत्महितको गौण किया । परन्तु वीतरागधर्म - विमुखता - विषमता — इतनी बढ़ गई थी कि लोग धर्मको अथवा आनंदघनजीको पहिचान न सके— समझ न सके । अन्तमें आनंदघनजीको लगा कि प्रबलरूपसे व्याप्त विषमताके योगमें लोकोपकार, परमार्थ- प्रकाश करनेमें असरकारक नहीं होता, और आत्महित गौण होकर उसमें बाधा आती है; इसलिये आत्महितको मुख्य करके उसमें ही प्रवृत्ति करना योग्य है । इस विचारणासे अन्तमें वे लोकसंगको छोड़कर वनमें चल दिये । वनमें विचरते हुए भी वे अप्रगटरूपसे रहकर चौबीस पद आदिके द्वारा लोकोपकार तो कर ही गये हैं । निष्कारण लोकोपकार यह महापुरुषोंका धर्म है । राजचन्द्रजीने आनंदघनचौबीसीका विवेचन भी लिखना आरंभ किया था, जो अंक ६९२ में छपा है ।
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ईसामसीह
ईसामसीह ईसाईधर्मके आदिसंस्थापक थे । ये कुमारी मरियमके गर्भसे उत्पन्न हुए थे । ईसा बचपन से ही धर्मग्रन्थोंके अध्ययन करनेमें सारा समय बिताया करते थे । ईसाके पूर्व फिलस्तीन 1 और अरब आदि देशोंमें यहूदीधर्मका प्रचार था। यहूदी पादरी लोग धर्मके बहाने जो मनमाने अत्याचार किया करते थे, उनके विरुद्ध ईसामसीहने प्रचण्ड आन्दोलन मचाया । ईसामसीहपर यहूदियोंने खूब आक्रमण किये, जिससे इन्हें जैरुसलेम भाग जाना पड़ा। वहां पर भी इनपर वार किये गये । यहूदियोंने इन्हें पकड़कर बन्दी कर लिया, और इन्हें काँटोंका मुकट पहनाकर स्लीपर लटका दिया । जिस समय इनके हाथों पैरोंमें कीलें ठोकी गई, उस समय भी इनका मुख प्रसन्नतासे खिलता रहा, और ये अपने वध करनेवालोंकी अज्ञानताको क्षमा करनेके लिये परमेश्वर से प्रार्थना