SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 860
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् राजचन्द्र [ पत्र ८५९, ८६ ०. हे आर्य ! अल्पआयुवाले दुःषमकालमें प्रमाद करना योग्य नहीं; तथापि आराधक जीवोंको तद्वत् सुदृढ़ उपयोग रहता है । ७७० आत्मबलाधीनता से पत्र लिखा है । ॐ शान्तिः. ८५९ मोरबी, श्रावण वदी ८, १९५६ ( १ ) षड्दर्शनसमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चयका भाषांतर गुजराती में करना योग्य है, सो करना । षड्दर्शनसमुच्चयका भाषांतर हुआ है, परन्तु उसे सुधारकर फिरसे करना उचित है । धीरे धीरे होगा; करना । आनंदघन चौबीसीका अर्थ भी विवेचन के साथ लिखना | ( २ ) नमो दुर्वाररागादिवैरिवारनिवारिणे । अर्हते योगिनाथाय महावीराय तायिने ॥ श्रीहेमचन्द्राचार्य योगशास्त्रकी रचना करते हुए मंगलाचरणमें वीतराग सर्वज्ञ अरिहंत योगिनाथ महावीरको स्तुतिरूपसे नमस्कार करते हैं । जो रोके रुक नहीं सकते, जिनका रोकना बहुत बहुत मुश्किल है, ऐसे रागद्वेष अज्ञानरूपी शत्रुके समूहको जिसने रोका - जीता - जो वीतराग सर्वज्ञ हुआ; वीतराग सर्वज्ञ होकर जो अर्हत् पूजनीय हुआ; और वीतराग अर्हत होकर, जिनका मोक्षके लिये प्रवर्तन है ऐसे भिन्न भिन्न योगियोंका जो नाथ हुआ— नेता हुआ; और इस तरह नाथ होकर जो जगत्का नाथ - तात - त्राता हुआ, ऐसे महावीरको नमस्कार हो । यहाँ सदेव के अपायापगमातिशय, ज्ञानातिशय, वचनातिशय और पूजातिशयका सूचन किया है । इस मंगलस्तुतिमें समग्र योगशास्त्रका सार समाविष्ट कर दिया है; सद्देवका निरूपण किया है; समग्र वस्तुस्वरूप-तत्त्वज्ञानका - समावेश कर दिया है। कोई खोज करनेवाला चाहिये । ( ३ ) लौकिक मेलेमें वृत्तिको चंचल करनेवाले प्रसंग विशेष होते हैं। सच्चा मेला तो सत्संगका है। ऐसे मेलेमें वृत्तिकी चंचलता कम होती है— दूर होती है । इसलिये ज्ञानियोंने सत्संग के 1 मेलेका बखान किया है—उपदेश किया है । • मोरबी, श्रावण वदी ९, १९५६ ८६० ॐ जिनाय नमः १. ( १ ) परमनिवृत्तिका निरन्तर सेवन करना चाहिये, यही ज्ञानीकी प्रधान आज्ञा है । (२) तथारूप योग में असमर्थता हो, तो निवृत्तिका सदा सेवन करना चाहिये, अथवा ( ३ ) स्वात्मवीर्यको छिपाये बिना, जितना बने उतना निवृत्ति सेवन करने योग्य अवसर प्राप्त कर, आत्माको अप्रमत्त करना चाहिये यही आज्ञा है । अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों में ऐसे आशय से सुनियमित वर्त्तनसे प्रवृत्ति करनेकी आज्ञा की गई है। २. जिस स्थलमें धर्मकी सुखढ़ता हो, वहाँ श्रावण वदी ११ से भाद्रपद पूर्णिमातक स्थिति करना
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy