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श्रीमद् रामचन्द्र
inant मोहमयी, कार्तिक मुद्रा ५, १९५५
जिससे अविरोध और एकता रहे वैसा करना चाहिये और इन सबका उपकारका मार्ग संभव है।
मिन्नता मानकर प्रवृत्ति करनेसे जीव उल्टा चलता है । वास्तवमें तो अमिलता है-एकता -इसमें सहज समझका फेर होनेसे ही तुम मिनता समझते हो, ऐसी उन जीवोंको यदि शिक्षा मिले, तो सन्मुखवृत्ति हो सकती है।
जबतक परस्पर एकताका व्यवहार रहे तबतक वह सर्वथा कर्तव्य है। ऊँ. ...
८३१ मोहमयी क्षेत्र, कार्तिक सुदी १४ गुरु. १.५५ हालमें मैं अमुक मासपर्यंत यहाँ रहनेका विचार रखता हूँ। अपनेसे बनता ध्यान दूंगा । अपने मनमें निश्चित रहना।
केवल अन्नवत हो तो भी बहुत है। परन्तु व्यवहारप्रतिबद्ध मनुष्यको कुछ संयोगोंके कारण थोड़ा बहुत चाहिये, इसलिये यह प्रयत्न करना पड़ा है । इसलिये धर्मकीर्तिपूर्वक वह संयोग जबतक उदयमान हो, तबतक जितना बन पड़े उतना बहुत है।
हालमें मानसिक वृत्तिसे बहुत ही प्रतिकूल मार्गमें प्रवास करना पड़ा है । तप्त-हृदयसे और शांत आत्मासे सहन करनेमें ही हर्ष मानता हूँ। ॐ शान्तिः ।
ईडर, पौष १९५५ या मुजाह मा रज्जह मा दुस्सह इणिहत्येसु । चिरमिच्छह मह चित्र विचित्रमाणप्पसिद्धीए॥ पणतीससोलछप्पणचउद्गमेगं च जवह माएह ।
परमेहिवाचयाणं अण्णं च गुरुवएसेण ॥ -यदि तुम स्थिरताकी इच्छा करते हो, तो प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुमें मोह न करो, राग न करो, द्वेष न करो । अनेक प्रकारके ध्यानकी प्राप्तिके लिये पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक-इस तरह परमेष्ठीपदके वाचक मंत्रोंका जपपूर्वक ध्यान करो । इसका विशेष स्वरूप श्रीगुरुके उपदेशसे समझना चाहिये।
अंकिंचिवि चितंतो गिरीहविची हवे जदा साहू ।
सदय एयचं तदाहु तं तस्स णिच्चयं शाणं ॥ --प्यानमें एकाप्रवृत्ति रखकर जो साधु निस्पृह-वृत्तिमान् अर्थात् सर्व प्रकारकी इच्छासे रहित होता है, उसे परमपुरुष निश्चय ध्यान कहते हैं।