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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ८२७ (२) जो वनवासी-शास्त्र ( श्री पानन्दि पंचविंशति ) भेजा है, वह प्रबल निवृत्तिके योगमें संयत इन्द्रियरूपसे मनन करनेसे अमृत है। ८२७ बम्बई, आसोज, १९५५ ॐ. जिन ज्ञानी-पुरुषोंका देहाभिमान दूर हो गया है, यद्यपि उन्हें कुछ करना बाकी नहीं रहा, तो भी उन्हें सर्वसंगपरित्याग आदि सत्पुरुषार्थताको परमपुरुषने उपकारभूत कहा है। (२) श्री के प्रति पत्र लिखवाते हुए सूचित करना " विहार करके अहमदाबाद स्थिति करनेमें मनको कोई भय, उद्वेग अथवा क्षोभ नहीं है परन्तु हितबुद्धिसे विचार करनेसे हमारी दृष्टिमें यह आता है कि हालमें उस क्षेत्रमें स्थिति करना योग्य नहीं । यदि आप कहेंगे तो उसमें आत्महितको क्या बाधा होती है', इस बातको विदित करेंगे और उसके लिये आप कहेंगे तो उस क्षेत्रमें समागममें आयेंगे । अहमदाबादका पत्र पढ़कर आप लोगोंको कोई भी उद्वेग अथवा क्षोभ न करना चाहिये-समभाव ही रखना चाहिये । लिखनेमें यदि कुछ भी अनम्रभाव हुआ हो तो क्षमा करना।" यदि तुरत ही उनका समागम होनेवाला हो तो ऐसा कहना कि "आपने विहार करनेके संबंधमें जो लिखा, सो उस विषयमें आपका समागम होनेपर जैसा आप कहेंगे वैसा करेंगे;" और समागम होनेपर कहना कि " पहले की अपेक्षा यदि संयममें शिथिलता की हो, ऐसा आपको मालूम होता हो तो आप उसे बतावें, जिससे उसकी निवृत्ति की जा सके और यदि आपको वैसा न मालूम होता होता हो, तो फिर यदि कोई जीव विषमभावके आधीन होकर वैसा कहें, तो उस बातके प्रति न जाकर, आत्मभावपर ही जाकर, प्रवृत्ति करना योग्य है । ऐसा जानकर हालमें अहमदाबाद क्षेत्रमें जानकी वृत्ति हमें योग्य नहीं लगती । क्योंकि (१) रागदृष्टियुक्त जीवके पत्रकी प्रेरणासे, और (२) मानकी रक्षाके लिये ही उस क्षेत्रमें जाने जैसा होता है;जो बात आत्माके अहितकी कारण है। कदाचित् आप ऐसा समझते हों कि जो लोग असंभव बात कहते हैं, उन लोगोंके मनमें उनको अपनी निजकी भूल मालूम पड़ेगी, और धर्मकी हानि होती हुई रुक जावेगी, तो यह एक हेतु ठीक है । परन्तु उसके रक्षण करनेके लिये यदि उपरोक्त दो दोष न आते हों, तो किसी अपेक्षासे लोगोंकी भूल दूर करनेके लिये विहार करना उचित है । परन्तु एक बार तो अविषमभावसे उस बातको सहन करके, अनुक्रमसे स्वाभाविक विहार होते होते उस क्षेत्रमें जाना बने, और किन्हीं लोगोंको बहम हो तो जिससे वह बहम निवृत्त हो जाय, ऐसा करना चाहिये । परन्तु रागदृष्टिवानके वचनोंकी प्रेरणासे, तथा मानकी रक्षाके लिये अथवा अविषमता न रहनेसे उसे लोककी भूल मिटानेका निमित्त मानना, वह आत्महितकारी नहीं । इसलिये हालमें इस बातको उपशांत कर.........."आप बताओ कि कचित्...........वगैरह मुनियोंके लिये किसीने कुछ कहा हो, तो उससे वे मुनि दोषके पात्र नहीं हैं। उनके समागममें आनेसे जिन लोगोंको वैसा संदेह होगा, वह सहज ही निवृत्त हो जायगा; अथवा किसी समझकी फेरसे संदेह हो, या दूसरा कोई
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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