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पत्र ७९८, (७९९)] विविध पत्र आदि संग्रह-३२वाँ वर्ष
७४१ किसी महत्पुरुषके मननके लिये पंचास्तिकायका संक्षिप्त स्वरूप लिखा था, उसे मनन करनेके लिये इसके साथ भेजा है।
हे आर्य ! द्रव्यानुयोगका फल सर्वभावसे विराम पानेरूप संयम है-इस पुरुषके इस वचनको तू कभी भी अपने अंतःकरणमें शिथिल न करना । अधिक क्या ? समाधिका रहस्य यही है। सर्व दुःखोंसे मुक्त होनेका उपाय यही है ।
७९८ ववाणीआ, चैत्र वदी २ गुरु.१९५५ हे आर्य ! जैसे रेगिस्तान उतर कर पार हुए, उसी तरह भव-स्वयंभूरमणको तैर कर पार होओ!
७९९ स्वपर उपकारके महान् कार्यको अब कर ले ! शीघ्रतासे कर ले ! अप्रमत्त हो-अप्रमत्त हो! क्या आर्यपुरुषोंने कालका क्षणभरका भी भरोसा किया है ? हे प्रमाद !! अब तू जा, जा! हे ब्रह्मचर्य ! अब तू प्रसन्न हो, प्रसन्न हो ! हे व्यवहारोदय ! अब प्रबलतासे उदय आकर भी तू शांत हो, शांत ! हे दीर्घसूत्रता ! तू सुविचारके, धीरजके और गंभीरताके परिणामकी क्यों. इच्छा करती है ! हे बोधबीज ! तू अत्यंत हस्तामलकवत् प्रवृत्ति कर, प्रवृत्ति कर! . हे ज्ञान ! तू अब दुर्गमको भी सुगम स्वभावमें लाकर रख ! हे चारित्र ! परम अनुग्रह कर, परम अनुग्रह कर! हे योग ! तुम स्थिर होओ, स्थिर होओ! हे ध्यान ! तू निजस्वभावाकार हो, निजस्वभावकार हो ! हे व्यग्रता । तू दूर हो जा, दूर हो जा!
हे अल्प अथवा मध्य अल्प कषाय ! अब तुम उपशम होओ! क्षीण होओ! हमें तुम्हारे प्रति कोई रुचि नहीं रही।
हे सर्वज्ञपद ! यथार्थ सुप्रतीतिरूपसे तू हृदयमें प्रवेश कर ! हे असंग निग्रंथपद ! तू स्वाभाविक व्यवहाररूप हो । हे परमकरुणामय सर्व परम हितके मूल वीतरागधर्म ! प्रसन्न हो, प्रसन्न ! हे आत्मन् ! तू निजस्वभावाकार वृत्तिमें ही अभिमुख हो, आभिमुख हो ! ॐ.
हे वचनसमिति ! हे कायस्थिरता ! हे एकांतवास ! और असंगता ! तुम भी प्रसन्न होओ, प्रसन्न होओ!
खलबली मचाती हुई जो आभ्यंतर वर्गणा है, या तो उसका अभ्यंतर ही वेदन कर लेना चाहिये; अथवा उसे स्वच्छ पुट देकर उसका उपशम कर देना चाहिये ।
ज्यों ज्यों निस्पृहता बलवान हो, त्यों त्यों ध्यान बलवान हो सकता है, कार्य बलवान हो सकता है।