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________________ श्रीमद् राजचन्द्र . [७५३ (१) प्रश्नः- आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग; .. . . , , ... ... .अपूर्ववाणी परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य । . . . . . :: (१) सद्गुरुके योग्य ये लक्षण मुख्यतया कौनसे गुणस्थानकमें संभव हैं ! (२) समदर्शिता किसे कहते हैं ! उत्तरः-(१) सद्रुके योग्य जो इन लक्षणोंको बताया है, वे लक्षण मुख्यतया-विशेषरूपसेउपदेशक अर्थात् मार्गप्रकाशक सद्गुरुके ही लक्षण कहे हैं । तथा उपदेशक गुणस्थानक छहा और तेरहवाँ है; बीचके सातवेंसे बारहतकके गुणस्थान अल्पकालवर्ती हैं। अर्थात् उनमें उपदेशक प्रवृत्ति संभव नहीं है । मार्गोपदेशक प्रवृत्ति छडेसे आरंभ होती है। छडे गुणस्थानकमें संपूर्ण वीतरागदशा और केवलज्ञान नहीं है; वह तो तेरहवेमें है; और यथावत् मार्गोपदेशकत्व तो तेरहवें गुणस्थानमें रहनेवाले सम्पूर्ण वीतराग और कैवल्यसंपन्न परमसद्गुरु श्रीजिनतीर्थकर आदिमें ही घटता है । तथापि छठे गुणस्थानमें रहनेवाला मुनि, जो सम्पूर्ण वीतरागता और कैवल्यदशाका उपासक है, जिसकी उस दशाके लिये ही प्रवृत्ति-पुरुषार्थ-रहता है; जिसने उस दशाको यद्यपि सम्पूर्ण रूपसे नहीं पाया, फिर भी जिसने उस सम्पूर्ण दशाके पानेके मार्गसाधनको, स्वयं परम सद्गुरु श्रीतीर्थकर आदि आप्तपुरुषके आश्रय-वचनसे जाना है-उसकी प्रतीति की है, अनुभव किया है, और इस मार्ग-साधनकी उपासनासे जिसकी वह उत्तरोत्तर दशा विशेष प्रगट होती जाती है; तथा जिसके निमित्तसे श्रीजिनतीर्थकर आदि परम सद्गुरुकी और उनके स्वरूपकी पहिचान होती हैउस सद्गुरुमें भी मार्गोपदेशकत्व अविरोधरूपसे रहता है। उससे नीचेके पांचवें और चौथे गुणस्थानकमें तो मार्गोपदेशकत्व संभव ही नहीं । क्योंकि वहाँ मार्गकी, आत्माकी, तत्त्वकी और ज्ञानको पहिचान नहीं, प्रतीति नहीं, तथा सम्यविरति नहीं; और यह पहिचान-प्रतीति-और सम्यविरति न होनेपर भी उसकी प्ररूपणा करना, उपदेशक होना, यह प्रगट मिथ्यात्व, कुगुरुपना और मार्गका विरोधरूप है। ___चौथे पाँचवें गुणस्थानमें यह पहिचान-प्रतीति-रहती है, और वहाँ आत्मज्ञान आदि गुण अंशसे ही रहते हैं; और पाँचवेंमें देशविरतिभावको लेकरं यद्यपि चौथेकी अपेक्षा विशेषता है, तथापि वहाँ सर्वविरतिके जितनी विशुद्धि नहीं है। ___आत्मज्ञान समदर्शिता आदि जो लक्षण बताये हैं, उन्हें मुख्यतासे संयतिधर्ममें स्थित, वीतरागदशाके साधक, उपदेशक गुणस्थानमें रहनेवाले सद्गुरुको लक्ष करके ही बताया है; और उनमें वे गुण बहुत अंशोंसे रहते भी हैं। तथापि वे लक्षण सर्वाशसे-संपूर्णरूपसे-तो तेरहवें गुणस्थानमें रहनेवाले सम्पूर्ण वीतराग और कैवल्यसंपन्न जीवन्मुक्त सयोगकेवली परमसद्गुरु श्रीजिन अरहंत तीर्थकरमें ही रहते हैं। क्योंकि उनमें आत्मज्ञान अर्थात् स्वरूपस्थिति संपूर्णरूपसे रहती है, जो उनकी ज्ञानदशा अर्थात् ज्ञानातिशयको सूचन करता है। तथा उनमें समदर्शिता सम्पूर्णरूपसे रहती है, जो उनकी वीतराग चारित्रदशा अर्थात् अपायागमातिशयको सूचित करता है। तथा वे सम्पूर्णरूपसे इच्छारहित हैं इसलिये उनकी विचरने आदिकी दैहिक आदि योगक्रियायें पूर्वप्रारब्धका वेदन करनेके लिये पर्याप्त ही हैं,
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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