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श्रीमद् राजचन्द्र
[७५३ व्याख्यानसार १८४. मिथ्यात्वके द्वारा मिथ्यात्व मंद पड़ता है, और इस कारण जहाँ जरा आगे चले कि जीव तुरत ही मिथ्यात्व गुणस्थानकमें आ जाता है।
- १८५. गुणस्थानक आत्माके गुणको लेकर ही होता है। .... १८६. मिथ्यात्वमेंसे. जीव एकदम न निकला हो, परन्तु यदि थोड़ा भी निकल गया हो, तो भी उससे मिथ्यात्व मंद पड़ता है। यह मिथ्यात्व भी मिथ्यात्वके द्वारा मंद होता है। मिथ्यात्व गुणस्थानकमें भी मिथ्यात्वका अंश जो कषाय होती है, उस अंशसे भी मिथ्यात्वमेंसे मिथ्यात्व गुणस्थानक हुआ कहा जाता है। ... १८७. प्रयोजनभूत ज्ञानके मूलमें-पूर्ण प्रतीतिमें-उसी तरहके मिलते जुलते अन्य मार्गकी सशताके अंशसे सदृशतारूप प्रतीति होना मिश्रगुणस्थानक है। परन्तु अमुक दर्शन सत्य है, और अमुक दर्शन भी सत्य है, इस तरह दोनोंके ऊपर एकसी प्रतीति रखना मिश्र नहीं, किन्तु मिथ्यात्व गुणस्थानक है । तथा अमुक दर्शनसे अमुक दर्शन अमुक अंशमें समान है-- यह कहनेमें सम्यक्त्वको बाधा नहीं आती । कारण कि वहाँ तो अमुक दर्शनकी दूसरे दर्शनकी साथ समानता करनेमें पहिला दर्शन ही सम्पूर्णरूपसे प्रतीतिरूप होता है। . . १८८. पहिले गुणस्थानकसे दूसरेमें नहीं जाते, परन्तु चौथेसे पीछे फिरते हुए जब पहिलेमें आना रहता है, तब बीचका अमुक काल दूसरा गुणस्थानक कहा जाता है। उसे यदि चौथेके बाद पाँचवाँ गुणस्थानक माना जाय, तो जीव चौथेसे पाँचवेंमें चढ़ जाय; और यहाँ तो साखादनको चौथेसे पतित हुआ माना गया है । अर्थात् वह नीचे उतरता हुआ ही है, उसे पाँचवाँ नहीं कहा जा सकता, इसलिये उसे दूसरा ही कहना ठीक है। . १८९. आवरण मौजूद है, यह बात तो सन्देहरहित है । इसे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही कहते हैं । परन्तु आवरणको साथ लेकर कथन करनेमें एक दूसरेमें कुछ थोडासा भेद आता है ।
१९०. दिगम्बर कहते हैं कि केवलज्ञान सत्तारूपसे नहीं, परन्तु शक्तिरूपसे रहता है।
१९१. यद्यपि सत्ता और शक्तिका सामान्य अर्थ एक ही है, परन्तु विशेषार्थकी दृष्टिसे उसमें कुछ थोडासा फेर है।
१९२. दृढ़रूपसे ओघ आस्थासे, विचारपूर्वक अभ्याससे 'विचारसहित आस्था' होती है। .
१९३. तीर्थकर जैसे भी संसारदशामें विशेष समृद्धिके स्वामी थे; फिर भी उन्हें त्याग करनेकी. जरूरत पड़ी, तो फिर अन्य जीवोंको वैसा करनेके सिवाय कैसे छुटकारा हो सकता है! ..
. १९४, त्याग दो प्रकारका है:--एक बाह्य. और दूसरा अभ्यंतर । बाह्य त्याग अभ्यंतर त्यागका सहकारी है (त्यागके साथ वैराग्यको भी सम्मिलित किया जाता है, क्योंकि वैराग्य होनेपर ही त्याग होता है)। .. १९५. जीव ऐसा समझता है कि ' मैं कुछ समझता हूँ, और जब मैं त्याग करनेका विचार. करूँगा तब एकदम. त्याग कर सकूँगा, परन्तु यह मानना भूलसे भरा हुआ है । क्योंकि जबतक ऐसा प्रसंग नहीं आया, तभीतक अपना जोर रहता है। किन्तु जब ऐसा समय आता है. तब जीव..