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________________ ७१० श्रीमद् राजचन्द्र [७५३ व्याख्यानसार १३५. जिसे गुणा और जोड़का ज्ञान हो गया है, वह कहता है कि नौको नौसे गुणा करनेसे ८१ होते हैं । परन्तु जिसे जोड़ और गुणाका ज्ञान नहीं हुआ.-क्षयोपशम नहीं हुआ वह अनुमानसे अथवा तर्कसे यदि ऐसा कहे कि 'नौको नौसे गुणा करनेसे कदाचित् ९८ होते हों, तो उसको कौन मना कर सकता है !' तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है । क्योंकि उसे ज्ञान न होनेके कारण वह ऐसा कहे तो यह स्वाभाविक ही है। परन्तु यदि उसे गुणाकी रीतिको अलग अलग करके, एकसे नौतक अंक बताकर नौ बार गिनाया जाय, तो उसे अनुभवमें आ जानेसे ९४९-८१ ही होते हैं, यह सिद्ध हो जाता है। कदाचित् उसका क्षयोपशम मंद होनेसे गुणाकी अथवा जोड़की पद्धतिसे, ९४९८१ होते हैं, यह उसे समझमें न भी आवे, तो भी नौको नौसे गुणा करनेपर तो ८१ ही होते हैं, इसमें कुछ भी फरक नहीं है । इसी तरह यदि सिद्धांत भी आवरणके कारण समझमें न आवें, तो वे सिद्धांत असिद्धांत नहीं हो जाते-इस बातकी निश्चय प्रतीति रखना चाहिये । फिर भी यदि प्रतीति करनेकी जरूरत हो तो सिद्धांतके कहे अनुसार चलनेसे प्रतीति होकर वह प्रत्यक्ष अनुभवका विषय होता है । १३६. जबतक वह अनुभवका विषय न हो तबतक उसकी सुप्रतीति रखनेकी ज़रूरत है, और सुप्रतीतिसे कम क्रमसे वह अनुभवमें आ जाता है । १३७. सिद्धांतके दृष्टान्तः (१) · राग-द्वेषसे बंध होता है।' (२) 'बंधका क्षय होनेसे मुक्ति होती है।' यदि इस सिद्धान्तकी प्रतीति करना हो तो राग-द्वेष छोड़ो । यदि सब प्रकारसे राग-द्वेष छूट जॉय तो आत्माकी सब प्रकारसे मोक्ष हो जाती है । आत्मा बंधनके कारण मुक्त नहीं हो सकती। जहाँ बंधन छूटा कि वह मुक्त ही है । बंधन होनेके कारण राग-द्वेष हैं । जहाँ राग-द्वेष सब प्रकारसे छूटे कि आत्माको बंधसे छूटी हुई ही समझनी चाहिये । उसमें कुछ भी प्रश्न अथवा शंका नहीं रहती। १३८. जिस समय जिसके राग-द्वेष सर्वथा क्षय हो जाते हैं, उसे दूसरे समयमें ही केवलज्ञान हो जाता है। १३९. जीव पहिले गुणस्थानकमेंसे आगे नहीं जाता-आगे जानेका विचार नहीं करता । तथा पहिलेसे आगे किस तरह बढ़ा जा सकता है ? उसका क्या उपाय है ! किस तरह पुरुषार्थ करना चाहिये ! उसका वह विचारतक भी नहीं करता; और जब बातें करने बैठता है तो ऐसी ऐसी बातें करता है कि इस क्षेत्रमें इस कालमें तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त नहीं होता । ऐसी ऐसी गहन बातें, जो अपनी शक्तिके बाहर हैं, उन्हें वह किस तरह समझ सकता है ! अर्थात् जितना अपनेको क्षयोपशम हो, उसके बादकी बातें यदि कोई करने बैठे तो वे कभी भी समझमें नहीं आ सकती। १४०. जो पहिले गुणस्थानकमें ग्रंथि है, उसका भेदन करके आगे बढ़कर संसारी जीव चौथेतक नहीं पहुँचा । कोई कोई जीव निर्जरा करनेसे उच्च भावोंमें आते हुए, पहिले से निकलनेका विचार करके, प्रथिभेदके समीप आता है; परन्तु वहॉपर उसके ऊपर ग्रंथिका इतना अधिक जोर होता है कि वह ग्रंथिभेद करनेमें शिथिल होकर रुक जाता है; और इस तरह वह शिथिल होकर वापिस आ जाता
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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